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मैंने जो आलोचना लिखी- किसी को गिराने या उठाने के लिए नहीं : डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

हिंदी आलोचना की विश्वसनीयता को लेकर प्रतिष्ठित आलोचक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से बात की पीयूष कुमार 'पाचक' ने...

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dr vishwanath prasad tiwari

स्वतंत्र भारत में नेहरू के बाद आप साहित्य अकादमी के पहले हिंदी भाषी अध्यक्ष हैं...

मैंंने कभी नहीं सोचा था कि मैं इस मुकाम तक पहुंच पाऊंगा। जब से गोरखपुर में अध्ययन कर रहा था तब से हिंदी भाषा के प्रति रुचि थी। 2008 में जब मैं साहित्य अकादमी का सदस्य बना तब भाषा की महत्ता का एहसास हुआ, साथ ही यह भी कि अकादमी कितनी महत्वपूर्ण संस्था है। रही बात अकादमी अध्यक्ष बनने की तो वो मैं सर्वसम्मति से चुना गया। हिंदी के साथ-साथ अन्य भाषाओं की भाषिक उन्नति को लेकर संतुष्ट हूं।

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आपके पास एक ओर सहृदय कविमन है, तो दूसरी ओर एक आलोचक की पेनी दृष्टि भी। स्वयं को किस रूप में मानते हैं?

मेरे लेखन की मूल चेतना काव्य है। हां काव्य मर्म को उद्घाटित करने की लिए मैंने जो आलोचना लिखी है वो किसी को गिराने या उठाने के लिए नहीं। मेरी अपनी मान्यता है कि अगर मेरे पास कवि हृदय नहीं होता तो आलोचना का दायित्व भी निर्वहन नहीं कर पाता। साहित्यिक आलोचना के अपने मूल होते हैं फिर भी पाठक वर्ग के लिए मैं स्वयं को कवि ही मानता हूं।

अच्छी आलोचना के कौन से आधार हो सकते हैं?

जोआलोचक होता है उसके मन में कुछ तो आधार अवश्य होते ही हैं, जो उसकी ओर से गढ़े या पढ़े हुए होते हैं या साहित्य के आधार पर बने होते हैं। लेकिन जब किसी कविता की या किसी कवि-लेखक की कृति को आधार मानें तो वह भी एक आधार बन सकता है। पूर्वाग्रह से ग्रसित आलोचक कृति से न्याय नहीं कर पाता।

वर्तमान आलोचना की दशा के बारे में आपकी क्या राय है?

वर्तमान आलोचना की स्थिति बड़ी दयनीय है। सच्ची आलोचना लिखी नहीं जा रही है। ज्यादातर आलोचना तो पुस्तक समीक्षा के रूप में उभरकर सामने आ रही है। कुछ ऐसी आलोचना भी सामने आ रही है जो कृति को आधार न मानते हुए पूर्वाग्रह को लेकर की जाती है...

पार्टी केंद्रित विचार राजनीति की भांति रचना या आलोचना को किस तरह प्रभावित करते हैं?

यदि पार्टी केंद्रित आलोचना लिखी जाए तो आलोचना का कोई मतलब ही नहीं रहेगा। आलोचना एक प्रकार का आलोचनात्मक विवेक है जिसका पालन सिद्धांतों व गुटों से ऊपर उठकर करना चाहिए। किसी का कहना है कि 'जब आप पार्टी बन गए तो आप आप नहीं रहते। और उसमें अपने पराए का बोध खत्म हो जाता है। रचना के साथ सही न्याय नहीं हो पाता। जब आप न्याय करते हैं तो उसमें एक प्रकार का संतुलन लाना पड़ता है। कृति के गुण-दोषों का यह संतुलन आलोचना में जरूरी है।

आखिर कविता का मूल क्या है?

कवि के मन की भावना ही कविता का मूल आाधार होता है। कवि के मन से जब कविता निकलती है तो भावनाओं एवं विचारों की अभिव्यक्ति होती है। कविता के शब्द अपने हों लेकिन दृष्टि अपनी नहीं होनी चाहिए। कविता में जातियता या लोकतत्व बहुत कम कवियों का स्वभाव रहा हैं। जो उनकी लोकोन्मूक भावनाएं या कुछ निजी भावनाओं का प्रगटीकरण करता है। कवि के भाव विचार ऐसे नही होते की वे पूर्णत: उस कवि के ही हो। उसमें बहुत सारा समाज, कवि की ओर से अनुभव किया गया जगत, पढ़ा गया या निष्कर्ष किया गया ज्ञान शामिल होता है।

आपने लोकतत्व शब्द का प्रयोग किया, साहित्य में लोक-तत्व और इसका महत्त्व क्या है?

अगर साहित्य में कवि के भाव से देखें तो लोकतत्व स्वयं के स्वभाव को दर्शाता है, यही लोकतत्व, लाकोन्मुख भावना का प्रकार है। हमें लगता है कि जो कवि लोकोन्मुख होता है, उसकी कविताएं ज्यादातर लोगों तक पहुंचती हंै या पढ़ी जाती हैं। उदाहरण के तौर पर तुलसीदास की ऐतिहासिकता को देख लीजिए, उसमें लोक प्रभाव ज्यादा है, इसलिए दीर्घजीवी है। क्योंकि आखिर लोक ही तो पाठक हैं। पाठक किसी कविता में या उसका हिस्सा नहीं होगा तो वह उसे क्यों पढ़ेगा! क्यों उसे 'एपरिशिएट करेगा। पाठक वर्ग से मिली प्रतिक्रियाओं से ही रचना दीर्घजीवी होती है। अत: हम कह सकते हैं कि हमारा अनुभव ही लोक अनुभव है। लोक या गांव आदि बाहरी दुनिया का अनुभव कविता की निजी सामाजिक क्रिया है।

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Updated on:
22 Sept 2017 05:36 pm
Published on:
22 Sept 2017 05:29 pm
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