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कवि शैलेष लोढ़ा ने पुरानी यादों को किया ताजा, बोले-सिरोही में बिताया बचपन, यहां की गलियां, स्कूल और दोस्त खूब याद आते हैं

. धारावाहिक 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा से लोकप्रिय हुए कवि शैलेष लोढ़ा ने कहा कि सिरोही मेरी कर्म भूमि है और मेरा इससे मोह है।

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कवि शैलेष लोढ़ा

सिरोही. धारावाहिक 'तारक मेहता का उल्टा चश्माÓ से लोकप्रिय हुए कवि शैलेष लोढ़ा ने कहा कि सिरोही मेरी कर्म भूमि है और मेरा इससे मोह है। यहां पला और बढ़ा हुआ। यहां की गलियां, होटल, स्कूल और दोस्त हमेशा याद आते हैं। वे हर साल की तरह बसंत पंचमी को पिण्डवाड़ा के निकट सरस्वती मंदिर में दर्शन को पहुंचे। लौटते वक्त सिरोही में पत्रकारों से बातचीत की। लोढ़ा ने बताया कि सिरोही में उन्होंने करीब 10-12 साल व्यतीत किए हैं। उन्होंने 1980 से लेकर 1990 तक की यादें ताजा की। कहा कि यहां की हर गली और चौराहे से अच्छी तरह वाकिफ है। उन्होंने सातवीं से लेकर एलएलबी तक की पढ़ाई यहां की है। जीवन में सीखने का काल यहां से शुरू हुआ।
सातवीं में सरकेएम स्कूल में दाखिला लिया और बारहवीं तक की पढ़ाई की। सरकारी कॉलेज से ग्रेजुएशन और एलएलबी सैकण्ड ईयर तक की पढ़ाई की। इस दौरान खूब सारे दोस्त बने। बकौल लोढ़ा- बचपन के दोस्तों को कोई कैसे भूल सकता हूं। यहां अनगिनत दोस्त है। उन्होंने बाकायदा बचपन के साथी रहे कमलेश सिंघी, कमलेश चौधरी, महेन्द्र, महेन्द्रसिंह सिंघल और नरेन्द्र खण्डेलवाल के नाम तक बताए।
मुझे समझदार जीवनसाथी मिली...
उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा कि जब भी परिवार को जरूरत होती है समय देता हूं। वैसे काव्य पाठ के लिए दुनिया में घूमता हूं और सीरियल में भी व्यस्त रहता हूं। मैंने ईश्वर से समझदार पत्नी मांगी हैै और मेरी जीवनसाथी डॉ. स्वाति लोढ़ा समझदार है और वो मुझे समझती है। कभी कोई दिक्कत नहीं आती। वैसे सभी तय करके चलते हैं तो कभी कोई मुश्किल नहीं होती। जैसे मैं हर साल बसंत पंचमी को सरस्वती मंदिर दर्शन करना तय है।
सिरोही के दोस्तों को मैं फोन करता हूं...
एक सवाल के जवाब में कहा कि आदमी को कहना ही नहीं चाहिए कि समय की कमी है। मेरे पुराने मित्र यहां बैठे हैं। मैं आज भी इन्हें चलाकर फोन करता हूं। शायद ये मुझसे ज्यादा बिजी है। व्यक्त निकालना चाहे तो निकल सकता है। क्वांटिटी टाइम नहीं मिलता, लेकिन क्वालिटी टाइम तो निकलता है।
दोस्तों संग थड़ी पर पीने जाते थे चाय
कहा कि दोस्तों संग पढऩा और थड़ी (होटल) पर चाय पीने जाना आज भी जेहन में है। उन्होंने बाकायदा अपनी टी स्टॉल का जिक्र किया। कहा कि यहां की चाय जायका ही अलग है। यहां चाय पीने रोज जाते, बैठते और बतियाते अच्छा लगता था।
१९८० में काव्य पाठ की शुरुआत
उन्होंने कहा कि पहली बार १९८० में बाल कवि के रूप में सुमेरपुर में कवि सम्मेलन में शिरकत की। राष्ट्रीय स्तर तक की डिबेट यहां से जीती। सही मायने में जेहन में कविता का जुनून भी यही से जागा।