
ओरछा का चतुर्भुज मंदिर
बुंदेलखंड में प्रचलित कहानियों के अनुसार करीब 450 साल पहले ओरछा में शासन कर रहे मधुकर शाह कृष्ण भक्त थे, जबकि रानी गणेश कुंवरि राम भक्त। एक बार राजा मधुकर शाह ने रानी को वृंदावन चलने के लिए कहा, लेकिन रानी अयोध्या जाना चाहती थीं और वृंदावन जाने से मना कर दिया। इससे नाराज होकर मधुकर शाह ने रानी से कहा कि तुम इतनी राम भक्त हो तो जाकर अपने राम को ओरछा ले आओ।
इस पर रानी अयोध्या पहुंचीं और सरयू नदी के किनारे लक्ष्मण किले के पास कुटी बनाकर साधना करने लगीं। इन्हीं दिनों संत शिरोमणि तुलसीदास भी अयोध्या में साधनारत थे। संत से आशीर्वाद पाकर रानी की आराधना दृढ़ से दृढ़तर होती गई। लेकिन कई महीनों तक उन्हें रामराजा के दर्शन नहीं हुए तो वह निराश होकर अपने प्राण त्यागने सरयू में कूद गईं। यहीं जल में उन्हें रामराजा के दर्शन हुए और रानी ने उन्हें साथ चलने के लिए कहा।
इस पर उन्होंने तीन शर्त रख दीं, पहली- यह यात्रा बाल रूप में पैदल पुष्य नक्षत्र में साधु संतों के साथ करेंगे, दूसरी जहां बैठ जाऊंगा वहां से उठूंगा नहीं और तीसरी वहां राजा के रूप में विराजमान होंगे और इसके बाद वहां किसी और की सत्ता नहीं चलेगी। इसके बाद रानी ने राजा को संदेश भेजा कि वो रामराजा को लेकर ओरछा आ रहीं हैं और राजा मधुकर शाह चतुर्भुज मंदिर का निर्माण कराने लगे।
लेकिन जब रानी 1631 ईं में ओरछा पहुंचीं तो शुभ मुहूर्त में मूर्ति को चतुर्भुज मंदिर में रखकर प्राण प्रतिष्ठा कराने की सोची और उसके पहले शर्त भूलकर भगवान को रसोई में ठहरा दिया। इसके बाद राम के बालरूप का यह विग्रह अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ और चतुर्भुज मंदिर आज भी सूना है। बाद में महल की यह रसोई रामराजा मंदिर के रूप में विख्यात हुई। इधर, बुंदेला राजा मधुकर शाह ने अपनी राजधानी टीकमगढ़ में बना ली और भगवान राम के प्रतिनिधि के रूप में टीकमगढ़ में शासन करने लगे।
Updated on:
06 Jan 2024 01:46 pm
Published on:
06 Jan 2024 01:42 pm
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