
उदयपुर। प्रदूषण कम करने, वनों को बचाने व बीमारियों से बचने के लिए महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (एमपीयूएटी) ने एक चूल्हा बनाया गया, जिसे नाम दिया ‘उदयराज चूल्हा’। पारंपरिक चूल्हों के कारण अधिक लकड़ी का उपयोग होता था। ऐसे में वनों की कटाई भी होती थी और पर्यावरण प्रदूषण भी। इसी को ध्यान में रखते हुए एमपीयूएटी के तत्कालीन कुलपति डॉ. एनएस राठौड़ के प्रयासों से वर्ष 1998 में यह चूल्हा विकसित किया गया।
यह चूल्हा नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय भारत सरकार की ओर से स्वीकृत है, लेकिन भारत सरकार की उज्ज्वला गैस योजना के कारण इस चूल्हे ने दम तोड़ दिया। अब बहुत कम संख्या मात्रा में इसका उपयोग होता है। उस समय मेवाड़ रीजन में करीब 12 सौ चूल्हे बनाकर लोगों को वितरित किए गए थे। इस चूल्हे की खास बात ये है कि यह पर्यावरण को दूषित नहीं करता। क्योंकि इस चूल्हे में लकड़ी पूरी तरह जलती है।
यह है विशेषता
इस चूल्हे के दोनों छेदों पर रखे बर्तनों में एक साथ भोजन पकाया जा सकता है। यह पक्का चूल्हा, गांव में उपलब्ध ईंटों व सीमेंट को प्रयोग कर किसी भी प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति द्वारा बनाया जा सकता है। इसका जीवनकाल कम से कम पांच वर्ष आंका गया है।
मक्के की रोटी का चलन, बनाया चूल्हा
उदयपुर के आस-पास के क्षेत्र में मक्की की रोटी खाने का चलन है। इसको ध्यान में रखते हुए यह चूल्हा बनाया गया है। जिसमें मक्की की रोटी सेकने के लिए उपयुक्त चौड़ाई दी गई है। इस चूल्हे के प्रयोग से ग्रामीण महिलाएं 30 से 40 प्रतिशत तक समय की बचत कर सकती है। इसमें विशेष रूप से लगाई गई चिमनी से हानिकारक धुआं रसोईघर से बाहर चला जाता है, जिससे रसोई का वातावरण स्वच्छ रहता है।
Published on:
03 Nov 2023 04:53 pm
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