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एक विचार- क्या भगत सिंह कभी भारत माता की जय का नारा लगाते?

भगत सिंह भौतिक यथार्थ को मानते थे एवं भारत के गरीब के साथ होने वाले अत्याचार को लेकर चिंतित रहते थे

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Ashish Kumar Shukla

Mar 27, 2016

sandeep

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संदीप पाण्डेय/राहुल पाण्डेय
वाराणसी. जैसा कि हम जानते हैं महान क्रांतिकारी भगत सिंह नास्तिक थे। उनकी एक प्रसिद्ध किताब है मैं नास्तिक क्यों हूं? उनको यह पता लग जाने के बाद भी कि उन्हें फांसी होने वाली है उन्होंने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। न तो उन्होंने दिल्ली स्थित केन्द्रीय विधान सभा में बम विस्फोट करने के लिए कोई खेद व्यक्त किया और न ही अंग्रेजों से माफी मांगी। यह देखते हुए कि उन्हें मात्र 23 वर्ष की उम्र में ही फांसी हो गई उन्हें आजादी के आंदोलन के लिए बहुत कुछ करने का वक्त नहीं मिला किंतु इसमें कोई दोराय नहीं कि आजादी के आंदोलन में शामिल सबसे प्रेरणादायी व्यक्तित्वों में से वे एक हैं।

भगत सिंह भौतिक यथार्थ को मानते थे एवं भारत के गरीब के साथ होने वाले अत्याचार को लेकर चिंतित रहते थे। वे भारत के करोड़ों लोगों की गरीबी व शोषण से मुक्ति हेतु काम करना चाहते थे। कई लोग जब जीवन में करने के लिए कठिन काम चुनते हैं तो उन्हें ईश्वर के सहारे की जरूरत पड़ती है। ईश्वर में आस्था से उन्हें जरूरतमंद की मदद के चुनौतीपूर्ण कार्य के सम्पादन के लिए आंतरिक शक्ति मिलती है। मदर टेरेसा इसका एक अच्छा उदाहरण हैं। किंतु भगत सिंह को इस किस्म की आस्था की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। उन्हें अपने पर भरोसा कर अंदर से शक्ति मिलती थी। वे समाजवाद के सिद्धांत को मानते थे एवं राजनीतिक बदलाव में यकीन करते थे। उन्होंने संख्या में बहुत कम लेकिन जबरदस्त वैचारिक प्रतिबद्धता वाले सहयोगियों के साथ अंग्रेज सरकार से लोहा लेने की ठानी और बुरी तरह परास्त हुए।

किंतु उनकी भावना को कोई कुचल न सका और आज भी उनसे प्रेरणा लेकर हजारों-लाखों लोग समाजिक बदलाव के क्रांतिकारी काम में लगे हुए हैं। चूंकि भगत सिंह ईश्वर को नहीं मानते थे अत: वे किसी प्रतीक को भी नहीं मान सकते थे। इसलिए उन्हें भारत माता जो राष्ट्र प्रेम के लिए एक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत की गईं थीं के लिए नारा लगाने की जरूरत भी महसूस नहीं हुई होगी। चूंकि वे किसी देवी-देवता की पूजा नहीं करते थे, भारत माता के प्रति भी उनकी कोई आस्था नहीं जगी होगी। इसकी सम्भावना कम है कि उन्होंने कभी भारत माता की जय का नारा लगाया होगा। बल्कि उनका पसंददीदा नारा था झ्इन्कलाब-जिंदाबाद।झ् क्या इसकी वजह से उनकी देशभक्ति में कोई कमी रही होगी? उनकी जिंदगी से तो यह संदेश मिलता है कि देश भक्ति तो व्यक्ति के विचारों व कार्यों में तय होती है न कि प्रतीकात्मक नारों में। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ इस बात को प्रचारित कर देश को बहुत नुकसान पहुंचा रहा है कि देश के प्रति वफादारी को साबित करने के लिए भारत माता की जय का नारा लगाना जरूरी है। ऐसे अनगिनत लोग हैं जो पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ समाज और मानवता की सेवा में लगे हुए हैं। देश के प्रति समर्पण को अभिव्यक्त करने के उनके तरीके भिन्न होंगे।

उदाहरण के लिए एक चिकित्सक मरीजों का इलाज कर देश-समाज की सेवा कर रही है। क्या उसे अपनी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण देने के लिए अब झ्भारत माता की जय का नारा लगाना होगा? ऐतिहासिक कारणों से भारत माता की जय का नारा हमारे दिमाग में दुर्गा के रूप की किसी देवी का चित्र उकेरता है जिनकी पूजा हिंदू धर्म को मानने वाला एक वर्ग करता है। किंतु भारत की वास्तविकता विविधतापूर्ण है। हिंदू धर्म से अलग कोई धर्म मानने वाले भारत माता की इस छवि से अपने आप को नहीं जोड़ पाएगा। हिंदू समाज का हिस्सा माने जाने वाली कई दलित जातियां भी इस रूप की देवी की पूजा नहीं करतीं। बल्कि इनमें से कुछ शायद देवी की इस छवि के खिलाफ भी आदिवासी समाज जो जंगलों के इर्द-गिर्द रहते हैं एवं जिनका जीवन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है गजब की सांस्कृतिक विविधता लिए हुए हैं। ये समाज हिंदू धर्म के जन्म से पहले से इस भूमि पर विद्यमान हैं।

इनमें से कई मानव रूपी देवी-देवता को न तो पूजते हैं और न ही हमारी राष्ट्र की भावना को साझा करते हैं। ये जंगल, मिट्टी, वर्षा, पहाड़, नदी व समुद्र जैसे प्राकृतिक प्रतीकों की पूजा करते हैं जिनके साथ उनका उभय समृद्धि का रिश्ता बना हुआ है। इनके अलावा नास्तिक और ईश्वर से अलग किसी अन्य प्रकार की शक्ति को मानने वाले लोग हैं, जिनके नागरिक के रूप में संवैधानिक अधिकार हैं, वे भी भारत माता की छवि को स्वीकार नहीं करते। आधुनिक युग में वैज्ञानिक व तार्किक सोच के विस्तार से ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी है। उपर्युक्त सारे लोग जो भारत के नागरिक हैं अपने-अपने तरीके से देश के साथ अपने को जोड़ते हैं और समाज को आगे बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं। उनके सांस्कृतिक प्रतीक भिन्न हैं जो उनके संदर्भ में प्रासंगिक हैं। हरेक समुदाय को अपने प्रतीकों और कर्मकाण्डों को मानने का अधिकार है जब तक वह किसी अन्य पर जबरदस्ती नहीं थोपा जा रहा है। यही वजह है कि हमारे पूर्वजों, जिन्होंने अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई में नेतृत्व किया, ने हमारे समाज के बहुलतावादी चरित्र को महत्व दिया। उनको यह एहसास हो गया था कि इस विविधता के संरक्षण की मजबूत नींव पर ही भारत की जीवंतता सुनिश्चित है।

आजादी की लड़ाई के कद्दावर नेता जो भारतीय जनता के बीच लोकप्रिय रहे, जैसे गांधी, खान अब्दुल गफ्फार खान, अम्बेडकर, बोस, भगत सिंह, तिलक, नेहरू, मौलाना आजाद, पटेल, टैगोर व अन्य, अपने विचारों व रणनीति में फर्क को अलग रखकर इन साझा मूल्यों पर सहमत थे। वे बहुलतावाद, धर्म-निपेज़्क्षता, न्याय, लोकतंत्र जैसा मूल्यों पर कोई समझौता नहीं करने को तैयार थे। यही वजह है कि ये मौलिक मूल्य हमारे संविधान की भी आत्मा में हैं और हमारे राष्ट्रीय प्रतीकों जैसे तिरंगे या जय हिन्द के नारे में भी। यदि राष्ट्रवाद की भावना धार्मिक प्रतीकों जैसे भारत माता के साथ जोड़ कर देखी जाने लगी तो समाज में बंटवारा व तनाव फैलेगा। अतार्किक उत्तेजना का परिणाम खुलेआम हत्याएं भी हो सकती हैं जैसे कि दादरी व झारखण्ड में एक अन्य भावनात्मक मुद्दे - गोरक्षा और गोमांस - पर हुईं। भगत सिंह ने युवाओं को इस किस्म के धार्मिक-राष्ट्रवाद के विचार से सावधान भी किया था।

1924 को अपने कीर्ति में प्रकाशित लेख में साम्प्रदायिक नेताओं और गैर-जिम्मेदार स्थानीय अखबारों को इस बात के लिए आड़े हाथों लिया कि वे क्रमश: उत्तेजनापूर्ण नारों व शीर्षक द्वारा साम्प्रदायिक हिंसा का माहौल निर्मित करते हैं। राष्ट्रवाद की प्रतीक भारत माता को लेकर नारा लगाने के बजाए अच्छा होगा यदि हम किसी निराश्रित महिला या लड़की की मदद करें और समाज में उनका सम्मान स्थापित करें। असल में जो समाज के प्रति अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभाते अथवा अपने परिवार की महिलाओं का सम्मान नहीं करते ऐसे लोगों को ही प्रतीकात्मक राष्ट्रवाद के प्रति सावज़्जनिक रूप से अपनी वफादारी साबित करने के लिए उत्तेजनापूर्ण नारे लगाने की जरूरत महसूस होती है।

(संदीप पाण्डेय सामाजिक कार्यकर्ता व सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के उपाध्यक्ष और राहुल पाण्डेय उद्यमी व भारतीय प्रबंधन संस्थान, लखनऊ में विजिटिंग प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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