
विदिशा@गोविन्द सक्सेना की रिपोर्ट...
मुर्दों की राख तो अस्थि संचय के बाद नदी में विसर्जित कर दी जाती है, उससे धंधा कैसे संभव है? लेकिन यह संभव हो रहा है। यही राख किसी के जीवन यापन का साधन बनी हुई है। नदी में बहाई जाने वाली राख का जो ढेर चरणतीर्थ घाट के पास लग गया है, उसकी राख को रोजाना करीब ३-४ घंटे की मेहनत से भारत सिंह आदिवासी खंगालता है, उसे छानता है और फिर उसकी किस्मत से रोजाना कभी सोने, कभी चांदी के छोटे-छोटे आभूषण या कण और सिक्के सहित अन्य सामग्री उसे राख में मिल जाती है। इस राख से वह रोजाना २०० से ७०० रूपए तक का सामान ले जाता है, जिससे उसका परिवार पलता है और वह अपने बच्चों को पढ़ा भी पाता है।
शनिवार की तपती दोपहर में चरणतीर्थ के पास उस घाट पर भारत सिंह पानी में से राख को छानते और उसमें से कुछ बीनते नजर आते हैं। जैसे ही कोई महत्वपूर्ण सामान या कण उन्हें नजर आता है, वैसे ही उनकी आंखों में चमक आ जाती है, वे तत्काल उसे निकालकर अपनी जेब में रख लेते हैं। भारत सिंह गौड़ आदिवासी है, वह बताते हैं कि यह काम उनके पिता भी करते थे, और मैं भी बचपन से मुर्दों की राख को ही छानकर उसमें से सामान ढूंढने का काम करता हूं। यही पूरे परिवार की आजीविका का साधन भी है।
भारत सिंह ने बताया कि मेरे पिता और बचपन से ही मैं भी यही काम कर रहा हूं, लेकिन बच्चों को कभी यहां नहीं लाया। वे स्कूल जाते हैं, मैं चाहता हूं कि वे खूब पढ़ें-लिखें। वे यहां आएंगे तो स्कूल कैसे जा पाएंगे। भारतसिंह बताते हैं कि रोजाना करीब ७०० रूपए तक की आमदनी मुर्दों की राख में से निकले सामान से हो जाती है। आज क्या मिला? भारतसिंह ने अपनी जेब से कुछ बिछिए, कुछ छोटे-छोटे धातु के कण, दो-तीन सरोते और सिक्के बताए। बोले- बस इसी तरह के सामान को हम ढूंढते हैं।
Published on:
12 May 2018 04:26 pm
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