फादर कामिल बुल्के (Father Camille Bulcke)का शुरुआती जीवन
फादर कामिल (Father Camille Bulcke) का जन्म बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में नॉकके-हेइस्ट नगर पालिका के एक गांव रामस्केपेल में हुआ था। उनके पिता का नाम अडोल्फ और माता का नाम मारिया बुल्के था। अभाव और संघर्ष भरे अपने बचपन के दिन बिताने के बाद बुल्के ने कई स्थानों पर पढ़ाई जारी रखी। उन्होंने पहले से ही ल्यूवेन विश्वविद्यालय से सिविल इंजीनियरिंग में बीएससी डिग्री हासिल कर ली थी।उसके बाद वे 1930 में एक जेसुइट बन गए। सन 1934 में ये भारत की ओर निकले
भाषा और साहित्य के नजरिये से यह बात अहम है कि बुल्के नीदरलैंड के वलकनबर्ग, (1932-34) में अपना दार्शनिक प्रशिक्षण लेने के बाद सन 1934 में ये भारत की ओर निकले और नवंबर 1936 में भारत, बंबई (अब मुंबई) पहुंचे। उन्होंने दार्जिलिंग में एक संक्षिप्त प्रवास के बाद गुमला (वर्तमान झारखंड) में पांच साल तक गणित पढ़ाई। वहीं पर हिंदी, ब्रजभाषा व अवधी सीखी। उसके बाद सन 1938 में, सीतागढ़/हजारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखी।
फादर कामिल बुल्के : एक नजर
जन्म कामिल
1 सितम्बर 1909
रामशैपेल, नॉकके-हेइस्ट नगरपालिका, वेस्ट फ्लैंडर्स, बेल्जियम
मौत अगस्त 17, 1982 (उम्र 72)
एम्स, दिल्ली, भारत
मौत की वजह गैंगरीन
राष्ट्रीयता बेल्जियम
नागरिकता बेल्जियन , भारतीय
कार्यकाल 1909-1982
प्रसिद्धि का कारण हिंदी साहित्य पर शोध, तुलसीदास पर शोध
माता-पिता अडोल्फ बुल्के, मरिया बुल्के
पुरस्कार पद्म भूषण
उनके मुख्य प्रकाशन
(हिंदी) रामकथा : उत्पत्ति और विकास, 1949
हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश, 1955
अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश, 1968
(हिंदी) मुक्तिदाता, 1972
(हिंदी) नया विधान, 1977
(हिंदी) नीलपक्षी, 1978 मैं इन लोगों की भाषा को सिद्ध करूँगा
उन्होंने हिंदी सीखने के लिए अपना पूरी जिंदगी जुनून विकसित किया, जैसा कि बाद में याद किया: मैं 1935 में जब भारत पहुंचा, मुझे यह देखकर आश्चर्य और दुःख हुआ, मैंने यह जाना कि अनेक शिक्षित लोग अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं से अनजान थे और इंग्लिश में बोलना गर्व की बात समझते थे। मैंने अपने कर्तव्य पर विचार किया कि मैं इन लोगों की भाषा को सिद्ध करूँगा।
राम कथा की उत्पत्ति और विकास
उन्होंने ब्रह्मवैज्ञानिक प्रशिक्षण (1939-42) भारत के कुर्सियॉन्ग से किया,1940 में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की। जिसके दौरान इन्हें पुजारी की उपाधि दी गयी (1941 में)। भारत की शास्त्रीय भाषा में इनकी रुचि के कारण इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय (1942-44) से संस्कृत में मास्टर डिग्री और आखिर में इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1945-49) में हिंदी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की, इस शोध का शीर्षक था राम कथा की उत्पत्ति और विकास ।
फादर कामिल बुल्केका कॅरियर
राम कथा की उत्पत्ति और विकास सन 1950 में रांची लौटे। उन्हें सेंट जेवियर्स महाविद्यालय में हिंदी व संस्कृत का विभागाध्यक्ष बनाया गया। बुल्के ने सन् 1950 में भारत की नागरिकता ग्रहण की। इसी वर्ष वे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की कार्यकारिणी के सदस्य नियुक्त हुए। वहीं सन् 1972 से 1977 तक भारत सरकार की केंद्रीय हिन्दी समिति के सदस्य बने रहे। वर्ष 1973 में इन्हें बेल्जियम की रॉयल अकादमी का सदस्य बनाए गए।
कामिल बुल्के और रामचरितमानस
पेशे से इंजीनियर रहे फादर बुल्के का वह ब्योरेवार तार्किक वैज्ञानिकता पर आधारित शोधसंकलन “रामकथा: उत्पत्ति और विकास” करता है कि राम वाल्मीकि के कल्पित पात्र नहीं, इतिहास पुरुष थे। तिथियों में थोड़ी बहुत चूक हो सकती है। बुल्के के इस शोधग्रंथ के उर्द्धरणों ने पहली बार साबित किया कि रामकथा केवल भारत में नहीं, अंतरराष्ट्रीय कथा है। वियतनाम से इंडोनेशिया तक यह कथा फैली हुई है। इसी प्रसंग में फादर बुल्के अपने एक मित्र हॉलैन्ड के डाक्टर होयकास का हवाला देते थे। डा होयकास संस्कृत और इंडोनेशियाई भाषाओं के विद्वान थे। एक दिन वे सेंट्रल इंडोनेशिया में शाम के वक्त टहल रहे थे। उन्होंने देखा एक मौलाना जिनके बगल में कुरान रखी है, इंडोनेशियाई रामायण पढ़ रहे थे।
बीस बरसों तक बुल्के के साथ रहे दिनेश्वरप्रसाद
होयकास ने उनसे पूछा, मौलाना आप तो मुसलमान हैं, आप रामायण क्यों पढ़ते हैं। उस व्यक्ति ने केवल एक वाक्य में उत्तर दिया- और भी अच्छा मनुष्य बनने के लिये! रामकथा के इस विस्तार को फादर बुल्के वाल्मीकि की दिग्विजय कहते थे, भारतीय संस्कृति की दिग्विजय! इस पूरे प्रसंग पर विस्तार से चर्चा करते हुए डा० दिनेश्वरप्रसाद भी नहीं अघाते। वे 20 वर्षों तक वह फादर बुल्के के संपर्क में रहे हैं। उनकी कृतियों, ग्रंथों की भूमिका की रचना में डा प्रसाद की अहम भूमिका रही है।