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एक राजा था। उसे कोई आवश्यक कार्य प्रारंभ करना था। इसलिए उसने अपने मंत्रियों से पूछा- किस अवसर पर मुझे आवश्यक कार्य प्रारंभ करना चाहिए।
मंत्रियों ने उत्तर दिए, किन्तु राजा संतुष्ट नहीं हुआ। तब मंत्रियों ने कहा- आप किसी ज्योतिषी से पूछें। उसने ज्योतिषियों से भी पूछा, फिर भी वह संतुष्ट न हो सका।
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फिर वह जंगल में बसे एक साधु के पास पहुंचा। साधु उस समय खेत जोत रहा था, क्योंकि उसे आज कुछ वर्षा होने की आशा थी। राजा ने उसे प्रणाम किया। साधु ने साधारण भाव से प्रणाम का उत्तर तो दिया, किन्तु ध्यान उसका खेत जोतने में ही लगा रहा।
राजा उसके इस व्यवहार से रुष्ट हुआ, पर मौन ही रहा। साधु काम में लगा रहा। कुछ देर बाद उसे अवकाश मिला तो उसने राजा से पूछा- कैसे कष्ट किया?
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राजा ने वही प्रश्न पूछा। साधु ने एक गंभीर हँसी के साथ राजा को अंदर बैठा दिया। फिर उसने मटके से बीज निकालकर खेत में बोये। थोड़ी ही देर बाद बारिश होने लगी। साधु राजा के पास ही मौन बैठा रहा। बारिश थमने पर साधु ने राजा से कहा- अब आप घर जाएं। राजा ने कहा- मेरे प्रश्न का उत्तर?
साधु बोला- वह तो अभी दे दिया। तब राजा को बोध हुआ। साधु ने बारिश होने की संभावना देखी तो सब काम छोड़कर सर्वप्रथम खेत जोता और वर्षा होने से पूर्व ही बीज बो दिए। इस प्रकार राजा ने समझ लिया कि कर्तव्यशील पुरुष अपनी करनी से ही हमें उत्तर दिया करते हैं, कथनों से नहीं, और उसने घर आते ही कार्य प्रारंभ कर दिया।
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सीख
अवसर कोई खोजे जाने की वस्तु नहीं है। जैसे ही कार्य के फलीभूत होने की संभावना देखाई दे, उसे अविलम्ब प्रारम्भ कर देना चाहिए।
प्रस्तुतः सतीश चंद्र अग्रवाल
आनंद वृंदावन, संजय प्लेस, आगरा
Published on:
06 Jul 2018 09:11 am
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