भारतीय वैज्ञानिकों ने ऐसी क्वांटम तकनीक विकसित की है जो ओटीपी फ्रॉड (OTP Fraud) और हैकिंग जैसी घटनाओं को रोकने में मदद करेगी। यह नई तकनीक बैंकिंग और साइबर सुरक्षा के लिए बड़ी क्रांति साबित हो सकती है। पहला प्रोटोटाइप अगले दो साल में तैयार होने की उम्मीद है।
OTP Fraud: बेंगलुरु स्थित रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट (RRI) और भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी क्वांटम-आधारित तकनीक विकसित की है जिससे विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले दो-तीन साल में ओटीपी हैकिंग की दिक्कत लगभग खत्म हो सकती है। अभी यह तकनीक लैब में सफल परीक्षण के चरण में है और इसे छोटे, पोर्टेबल उपकरण के रूप में ढालने का लक्ष्य रखा गया है। अगर यह कामयाब होता है तो बैंकिंग, रक्षा और संवेदनशील संचार के क्षेत्र में सुरक्षा के मानक बदल सकते हैं।
शोधकर्ताओं ने जो तरीका विकसित किया है उसे वे 'डिवाइस-इंडिपेंडेंट रैंडम नंबर जनरेशन' कह रहे हैं। इसका मतलब यह है कि रैंडम नंबर जनरेट करने की प्रक्रिया किसी खास हार्डवेयर की कमजोरियों पर निर्भर नहीं होगी।
क्वांटम सिद्धांतों का इस्तेमाल करके ऐसे रैंडम नंबर बनाए जाते हैं जिन्हें सामान्य डिवाइस-आधारित जनरेटर आसानी से नकल नहीं कर सकते हैं या समझ पाने में सक्षम नहीं हैं। इससे ओटीपी और एन्क्रिप्टेड बातचीत के लिए उपयोग होने वाले रैंडम नंबर्स की सुरक्षा बढ़ जाएगी।
शोध अब तक टेबल-टॉप क्वांटम ऑप्टिक्स सेटअप पर सफल रहा है लेकिन मौजूदा प्रोटोटाइप पोर्टेबल नहीं है और इसे सटीक नियंत्रण व ऑप्टिकल उपकरणों की जरूरत होती है। IISc और RRI की टीम का लक्ष्य इसे एक छोटे बॉक्स में बदलना है जिसे कहीं भी इंस्टॉल किया जा सके। टीम ने कहा है कि एक बार यह उपकरण-आधारित समस्याओं से मुक्त होकर प्रमाणित रैंडम नंबर देने लगेगा तो इसकी उपयोगिता बहुत बढ़ जाएगी।
यह रिसर्च RRI और IISc के अलावा कनाडा की कैलगरी यूनिवर्सिटी के सहयोग से हुई है। इस काम के प्रमुख शोधकर्ता में RRI की क्वांटम इंफॉर्मेशन और कंप्यूटिंग लैब की प्रमुख प्रोफेसर उर्बसी सिन्हा और IISc की प्रोफेसर अनिंदा सिन्हा शामिल हैं, साथ में पीएचडी छात्र पिंगल प्रत्यूष नाथ भी इस टीम का हिस्सा हैं। उनके निष्कर्ष अंतरराष्ट्रीय पत्रिका Frontiers in Quantum Science and Technology में पब्लिश हुए हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार, पुराने रैंडम नंबर जनरेटर समय के साथ खराब होने लगते हैं। अगर किसी डिवाइस में थोड़ी भी कमजोरी आ जाए, तो हैकर्स उसका फायदा उठा सकते हैं। इसी वजह से वे चाहते हैं कि रैंडमिटी की जेनरेशन ऐसी हो जो डिवाइस-विशेष की खामियों पर निर्भर न रहे यानी डिवाइस-इंडिपेंडेंट तरीका अपनाया जाए।
टीम का कहना है कि बैंक, रक्षा और संवेदनशील संचार में रैंडम नंबर की उच्च गुणवत्ता और प्रमाणिकता जरूरी है। नए तरीके से तैयार रैंडम नंबर का उपयोग ओटीपी और एन्क्रिप्शन के लिए किया जा सकेगा जिससे हैकिंग के जोखिम कम होंगे। शोधकर्ता यह भी कह रहे हैं कि प्रारम्भिक प्रोटोटाइप महंगा होगा, पर स्थानीय उत्पादन के बाद लागत घटेगी और छोटे-छोटे यूनिट्स को बैंकों व संस्थानों में रखा जा सकेगा।
RRI-IISc टीम और उनके स्टार्टअप क्यूसिन टेक का अगला लक्ष्य एक कॉम्पैक्ट, प्रमाणित डिवाइस जिसे वे 'रैंडमनेस बॉक्स' कहते हैं, बनाना है। इस डिवाइस में उनके विकसित एल्गोरिथ्म और 'Leggett-Garg inequalities' जैसे एलिमेंट्स का उपयोग होगा ताकि जेनरेट किए गए बिट्स सैद्धांतिक रूप से भी अप्रेडिक्टेबल (अनुमानित नहीं) हों। टीम को उम्मीद है कि पहला पोर्टेबल प्रोटोटाइप दो-तीन साल में तैयार हो सकेगा।
शोधकर्ताओं का कहना है कि यही क्वांटम तकनीक की सबसे बड़ी ताकत है। अगर कोई ऐसा ही उपकरण बना भी ले, तो वह दूसरे असली यूनिट से बनाए गए रैंडम नंबरों का अनुमान नहीं लगा सकता है। इसलिए यह तकनीक हैकिंग से बचाने में बहुत मजबूत साबित होगी।
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