Delhi High Court: दिल्ली हाईकोर्ट के इस निर्णय न केवल महिला को न्याय दिया, बल्कि यह भी साबित किया कि अदालतों की नजर में महिलाओं के शरीर और जीवन पर उनका अधिकार सबसे ऊपर है।
Delhi High Court: दिल्ली हाईकोर्ट ने गुरुवार के एक ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि किसी भी महिला को उसकी इच्छा के खिलाफ अनचाही गर्भावस्था को जारी रखने के लिए मजबूर करना न केवल उसकी पीड़ा को बढ़ाता है, बल्कि यह उसके संवैधानिक अधिकारों का भी उल्लंघन है। इसके साथ ही अदालत ने 30 साल की अविवाहित युवती को 22 सप्ताह से ज्यादा का गर्भ चिकित्सकीय रूप से समाप्त करने की अनुमति दे दी। युवती ने आरोप लगाया था कि उसके लिव-इन पार्टनर ने उससे शादी का झूठा वादा करके उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए, जिसके कारण वह गर्भवती हुई।
यह मामला एक अविवाहित युवती की याचिका से जुड़ा है, जो लगभग दो साल से अपने पार्टनर के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में थी। महिला ने आरोप लगाया कि उसके पार्टनर ने शादी का झूठा वादा करके उसके साथ यौन संबंध बनाए। इस दौरान वह पिछले साल नवंबर-दिसंबर में पहली बार गर्भवती हो गई। इसकी जानकारी पर उसे गर्भपात के लिए मजबूर किया गया। गर्भपात के बाद उसके लिव इन पार्टनर ने यौन शोषण की सारी सीमाएं पार कर दीं। युवती का कहना है कि उसे शादी करने का झांसा देकर उसके लिव इन पार्टनर ने पिछले छह महीने में लगभग 200 बार उसका रेप किया। इसी बीच वह फिर गर्भवती हो गई।
युवती के अनुसार, लिव इन पार्टनर ने उसपर फिर से गर्भपात का दबाव बनाया, लेकिन इस बार उसने गर्भपात कराने से मना कर दिया। इससे गुस्साए पार्टनर ने उसे पीटा और छोड़ दिया। इसके बाद युवती ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, जिसके आधार पर भारतीय न्याय संहिता (BNS) की संबंधित धाराओं के तहत, बलात्कार, जानबूझकर चोट पहुंचाने और आपराधिक धमकी के आरोप में एफआईआर दर्ज की गई। युवती ने अपनी याचिका में बताया कि यह गर्भावस्था यौन शोषण का परिणाम है और इसे जारी रखने से उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान हो सकता है। साथ ही उसे सामाजिक कलंक का भी सामना करना पड़ेगा।
दिल्ली हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति रविंदर डुडेजा की पीठ ने कहा कि एक महिला की गर्भावस्था और शारीरिक अखंडता के अधिकार को अन्य सभी पहलुओं पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए। कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि किसी महिला को अनचाहे गर्भ को जारी रखने के लिए मजबूर करना उसके जीवन, गरिमा, निजता और निर्णय लेने की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले हैं।
अदालत ने यह भी माना कि इस अनचाही गर्भावस्था के कारण महिला को गंभीर शारीरिक और मानसिक आघात पहुंचा है। कोर्ट ने कहा कि अगर उसे गर्भावस्था जारी रखने के लिए मजबूर किया जाता है, तो उसकी पीड़ा और ज्यादा बढ़ जाएगी और उसे सामाजिक कलंक का भी सामना करना पड़ेगा। इससे वह यौन शोषण से मिले भावनात्मक घावों को भरने में भी असमर्थ हो जाएगी।
अदालत ने अपने फैसले से पहले एम्स के डॉक्टरों की एक रिपोर्ट पर भी ध्यान दिया। इस रिपोर्ट में डॉक्टरों ने पुष्टि की कि महिला गर्भपात के लिए पूरी तरह से स्वस्थ है। इस रिपोर्ट और याचिकाकर्ता की दलीलों को ध्यान में रखते हुए, कोर्ट ने महिला की याचिका को स्वीकार कर लिया और उसे तत्काल एम्स अस्पताल में चिकित्सकीय देखरेख में गर्भपात की अनुमति दे दी।
यह फैसला मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) एक्ट, 1971 के प्रावधानों के अनुरूप है। इस कानून के तहत, कानूनी रूप से 20 सप्ताह तक के गर्भ को गिराने की अनुमति है। हालाँकि, 2021 में हुए संशोधन के बाद, कुछ विशेष श्रेणियों की महिलाओं, जैसे यौन उत्पीड़न की शिकार, को मेडिकल बोर्ड की मंजूरी के बाद 24 सप्ताह तक गर्भपात कराने की अनुमति मिल गई है। यह कानून अदालतों को उन असाधारण मामलों में 24 सप्ताह से अधिक की गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति भी देता है, जहां भ्रूण में असामान्यताएं हों या महिला के मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य को गंभीर खतरा हो।