
राम मंदिर पर विशेष आलेख श्रृंखला
यजुर्वेद की एक प्रार्थना में कहा गया है- ‘वीर्यमसि वीर्यम् महि धेहि’ अर्थात् हे परमात्मा आप वीर्यस्वरूप हैं, मुझमें भी पराक्रम की स्थापना करिए। यह प्रार्थना की मनुष्य सहज अपेक्षाओं में से एक है। सोलह बिन्दुओं के माध्यम से मानवता की जिज्ञासा करते हुए महर्षि वाल्मीकि ने इसे भी रखा है- ‘कश्च वीर्यवान्’ और इसका उत्तर भी श्रीराम हैं। वीर्यवान् का अभिप्राय है, सहज पराक्रम से, वीरता से युक्त।
वीर्य पार्थिव बल का, धरती पर पाए जाने वाले साहस-शौर्य का मूल कारण है, यह व्यक्तित्व में पाए जाने वाले प्रभाव का मुख्य कारण है। निर्भयता, उत्साह और जीतने का उल्लास इससे ही प्राप्त होता है। आत्मबल इस पर निर्भर करता है। वाल्मीकि जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए नारदजी कहते हैं- ‘विष्णुना सदृशो वीर्ये’ अर्थात् श्रीराम विष्णु के समान वीर्यवान हैं। तात्पर्य है कि वे अमोघवीर्य हैं, उनका पराक्रम कभी निष्फल नहीं होता।
शूर्पणखा के द्वारा प्रेरित रावण सीताहरण में सहायता मांगने जब मारीच के पास गया तो मारीच को प्रोत्साहित करते हुए कहता है कि राम तुम्हारे समान समर्थ नहीं है। इस पर मारीच कहता है कि रावण तुमको यथार्थ का ज्ञान नहीं है। दैत्यराज बलि और नमुचि भी श्रीराम का युद्ध में सामना नहीं कर सकते। मारीच राक्षस है और रावण का सहयोगी है, फिर भी वह श्रीराम के महत्त्व और पराक्रम को स्वीकार करता है। यही रामत्व का प्रकाश है।
किष्किन्धा में खड़े श्रीराम बाली को कहते हैं कि वन-पर्वतों समेत यह सारी भूमि इक्ष्वाकु वंश की है, हम इसकी रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। पराक्रम का अभिप्राय किसी को भयाक्रान्त करना नहीं, अपितु लोक को भयमुक्त करना है। श्रीराम घोषणा करते हैं- ‘क्षत्रियैर्धार्यते चापो नार्त्तशब्द: भवेदिति।’ क्षत्रिय इसलिए धनुष धारण करते हैं कि कहीं पीड़ित स्वर न सुनाई दे। व्यक्ति और समाज को अभय करने की यह प्रतिज्ञा श्रीराम को लोकरक्षक बनाती है।
वस्तुत: श्रीराम का पराक्रम निर्बलों का बल है। हारते हुए, वंचित होते हुए, पीछे छूटते हुए लोगों को साथ लेने और सहेजने में ही इसकी चरितार्थता है। यह पराक्रम सामाजिक शान्ति को बनाए रखने का आधार है। श्रीराम का पराक्रम लोक को निर्भयता प्रदान करता है और इस प्रकार श्रीराम को जन-जन की चेतना में नायक के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
Published on:
08 Jan 2024 07:48 pm
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