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बैंगलोर

ऑस्टियोआर्थराइटिस के दर्द का हो सकेगा इलाज

आइआइएससी के वैज्ञानिकों को मिली अहम कामयाबी, ऐसे सूक्ष्मकणों का किया निर्माण जो दवा को बनाएगा प्रभावी

बैंगलोरJul 12, 2020 / 07:29 pm

Rajeev Mishra

ऑस्टियोआर्थराइटिस के दर्द का हो सकेगा इलाज

ऑस्टियोआर्थराइटिस के दर्द का हो सकेगा इलाज

बेंगलूरु.
उम्र अथवा मोटापा बढऩे के साथ जोड़ों में दर्द की प्रचलित बीमारी ऑस्टियोआर्थराइटिस के कारगर उपचार की दिशा में भारतीय विज्ञान संस्थान (आइआइएससी) के वैज्ञानिकों को एक अहम सफलता मिली है। वैज्ञानिकों ने लैक्टिक सह ग्लाइकोलिक एसिड नामक जैव पदार्थ से ऐसे अतिसूक्ष्म कणों का निर्माण (माइक्रोपार्टिकल फार्मुलेशन) किया है जो इस रोग से पीडि़त मरीजों के उपचार को प्रभावकारी बना देगा।
दरअसल, इस बीमारी के इलाज के लिए वैज्ञानिकों ने रैपामायसिन नामक दवा को नव विकसित सूक्ष्म कणों के साथ इनकैप्सुलेट (संपुटित करना अथवा फंसा देना) किया है। रैपामायसिन का प्रयोग अमूमन अंग प्रत्यारोपण के बाद प्रतिरक्षादमनकारी (इम्युनोसप्रेसेंट) दवा के तौर पर किया जाता है। अगर वैज्ञानिकों द्वारा डिजाइन किए गए कणों के साथ रैपामायसिन को इनकैप्सुलेट कर इंजेक्शन के जरिए मरीजों के रोगग्रस्त जोड़ों तक पुहंचाई जाए तो क्षतिग्रस्त नरम एवं लचीले उत्तकों (उपास्थि) की मरम्मत कारगर तरीके से हो पाएगी। संभव है ऑपरेशन की नौबत ही नहीं आए।
लंबे समय टिकेगी दवा
इस आविष्कार के जनक आइआइएससी में बायोसिस्टम्स साइंस एंड इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर रचित अग्रवाल ने ‘पत्रिका’ को बताया कि अभी जो दवाएं उपयोग में लाई जाती हैं उनके साथ दिक्कत यह है कि वह जल्दी ही जोड़ों से निकल जाती हैं। हमारा प्रमुख इनोवेशन यह है कि दवा की आपूर्ति के ऐसे तरीके बनाए हैं जिससे वह लंबे समय तक टिके रहे। आंकड़े दिखाते हैं कि जब इन कणों के साथ दवा क्षतिग्रस्त उपास्थियों तक पहुंचाई जाती है तो वह लगभग 20 से 30 दिनों तक टिकी रहती है। इससे क्षतिग्रस्त उपास्थियों में धीरे-धीरे दवा का प्रवाह समान तरीके होता रहता है और कोशिकाओं की मरम्मत हो जाती है।
बार-बार अस्पताल जाने से मिलेगा छुटकारा
उन्होंने बताया कि अगर किसी रोगी को सप्ताह में एक बार इंजेक्शन लेने की जरूरत है तो उसे महीने में एक बार डोज लेना पर्याप्त होगा। अगर किसी रोगी को ऑपरेशन की जरूरत है तो संभव है उसकी नौबत नहीं आए अथवा 5 की जगह 20 साल बाद आए। अगर किसी एथलीट अथवा सैनिक को भी दौडऩे-भागने या कूदने के कारण ऐसी बीमारी का शिकार होना पड़ता है तो उसके लिए भी यह उपचार काफी कारगर साबित होगा।
क्लीनिकल ट्रायल में लगेगा वक्त
प्रोफेसर अग्रवाल ने बताया कि वर्ष 2018 से ही यह शोध चल रहा है और अभी जारी है। चूहों पर किए गए प्रयोग का परिणाम उत्साहजनक रहा है। इसके व्यावहारिक उपयोग में अभी वक्त लगेगा क्योंकि हर प्रयोग के बाद दो से तीन महीने की निगरानी आवश्यक होती है। उन्होंने बताया कि क्लीनिकल ट्रायल शुरू होने के बाद मनुष्यों पर प्रयोग होगा और तब इसका इस्तेमाल कर पाएंगे। लेकिन, इसमें अभी 5 वर्ष से अधिक समय लगेगा।

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