
बाराबंकी. देवा शरीफ स्थित सूफी संत हाजी वारिस अली शाह की दरगाह शायद देश की पहली दरगाह होगी जहां सभी धर्मों के लोग मिलकर होली के सूफियाना रंगों में सराबोर होते हैं। जो रब है वही राम का संदेश पूरी दुनिया को देने वाले सूफी संत हाजी वारिस अली शाह की बाराबंकी की मजार पर इसबार भी आपसी सौहार्द के लिए होली में गुलाल की धूम मची। हिंदू-मुस्लिम एक साथ रंग और गुलाल में डूब गए। बाराबंकी का यही बागी और सूफियाना मिजाज होली को दूसरी जगहों से अलग कर देता है।
हिंदू-मुस्लिम एकता की अनोखी मिसाल
बाराबंकी की हाजी वारिस अली शाह मजार परिसर में सतरंगी रंगों के साथ खेली जाने वाली फूलों की होली अपने आप में बेमिसाल है। यहां होली में केवल गुलाब के फूल और गुलाल से ही होली खेलने की परंपरा है। कुंतलों फूलों की पांखुड़ियों और गुलाल से यहां हिंदू मुस्लिम ने मिलकर होली खेली। मजार के कौमी एकता गेट पर पुष्प के साथ चाचर का जुलूस निकाला गया और मजार परिसर तक पहुंचा। सूफी संत हाजी वारिस अली शाह के चाहने वाले सभी धर्म के लोग थे। इसलिए हाजी साहब हर वर्ग के त्योहारों में बराबर भागीदारी करते हैं। वह अपने हिंदू शिष्यों के साथ होली खेल कर सूफी पंरपरा का इजहार करते थे। इसीलिए उनके निधन के बाद आज भी यह परंपरा आज जारी है।
बाबा खेलते थे रंग-गुलाल
हाजी वारिस अली बाबा के शिष्य के मुताबिक बुर्जग बताते थे कि सूफी संत के जिंदा रहने के दौरान ही उनके भक्त उनको होली के दिन गुलाल और गुलाब के फूल भेंट करने के लिए आते थे। इस दौरान ही उनके साथ श्रद्धालु होली खेलते थे। वहीं मजार पर दूर-दूर से होली खेलने श्रद्धालुओं की मानें तो आज भले ही हाजी साहब दुनिया में नहीं हैं पर देश को आज भी आपसी सौहार्द की बेहद जरूरत है। इसको बनाए रखने के लिए ही वह अपने साथियों के साथ यह जश्न मनाते हैं।
साम्प्रदायिक सौहार्द की अनूठी मिसाल
दिल्ली से हर साल यहां होली मनाने आने वाले सरदार मंजीत सिंह ने बताया कि यहां की होली साम्प्रदायिक सौहार्द की अनूठी मिसाल है। यहां हर मजहब का आदमी मिलजुलकर होली खेलता है। उन्होंने बताया कि पहले वह होली नहीं खेलते थे और पिछले 30 साल से दिल्ली से यहां आकर केवल लोगों को होली खेलते देखते थे। लेकिन अब वह भी यहां लोगों के साथ जमकर होली खेलते हैं।
Published on:
10 Mar 2020 07:00 am
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