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Video : रेगिस्तान के कण-कण में गूंज रही 1971 की शौर्य गाथाएं

locationबाड़मेरPublished: Dec 15, 2018 09:39:48 pm

– आज 48 वां विजय दिवस – हणूतसिंह जसोल, बलवंतसिंह बाखासर, चतरसिंह ढोक सहित कई वीरों को याद करती है धोरां धरती

Many warriors had sacrificed life for country

Many warriors had sacrificed life for country

भवानीसिंह राठौड़

बाड़मेर. आज 48 वां विजय दिवस है। देशभर में आजादी और आन-बान-शान के लिए अपने प्राणों को त्यागने वाले शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाएगी। इस कड़ी में थार में भी शहीदों को नमन किया जाएगा। शहीदों की शहादत में थार की भूमिका भी कम नहीं रही है। कई योद्धाओं ने देश के लिए प्राण न्यौछावर कर दिए थे।
गडरा से भरी हुंकार, यह था विजयद्वार

वर्ष 1971 का भारत-पाक युद्ध बाड़मेर सीमा पर पाकिस्तान की सरजमीं पर लड़ा गया। वर्ष1965 के भारत-पाक युद्ध में विजयद्वार के रूप में प्रसिद्ध हुए वर्तमान गडरारोड़ से युद्ध की हुंकार भरी गई।
भारतीय सेना के जांबाजों ने युद्ध के आरंभ में पाकिस्तान की सीमा चौकियों पर कब्जा किया। ये चौकियां पाक सीमा के भीतर पंद्रह किमी की दूरी पर थी। भारतीय सेना ने सिंध फतेह करने में भी ज्यादा देर नहीं की। पाकिस्तान का पूरी तरह से मान मर्दन कर दिया।
पाक ने टेके थे घुटने

भारत-पाक 1971 युद्ध में भारतीय सेना के सामने 93 हजार जवानों ने हथियारबंद होने के बावजूद आत्मसमर्पण कर पराजय स्वीकार कर ली। युद्ध 3 से 16 दिसंबर तक चला था।
हणूतसिंह ने 38 टैंकों को किया दफन

जसोल गांव निवासी हणूतसिंह ने तो पूना रेजीमेंट का सिर ऐसा ऊंचा किया कि पाकिस्तान को भी उनको फक्र्र-ए-हिंद कहना पड़ा। भारतीय सेना को आज भी उन पर गर्व है।
उनकी ढाणी में एक टैंक रखा गया है जो इस अद्वितीय योद्धा की वीरता की कहानी कहता है। हणूतसिंह के सामने पाकिस्तान के 39 टैंक थे, लेकिन वे वीरता के साथ आगे बढ़े और एक-एक कर अचूक निशाने व दिलेरी के साथ पाकिस्तान की पूरी रेजिमेंट को नेस्तानबूद कर दिया।
बलवंत सेना के हीरो

ब्रिगेडियर भवानीसिंह जयपुर को 1971 के युद्ध में बाड़मेर की कमान मिली। वे गुजरात से सटे बाखासर हलके में पहुंचे। ाण क्षेत्र में उनके लिए रास्ता ढंूढऩा मुश्किल था, उस वक्त बाखासर में बलवंतसिंह का दबदबा था। वे यहां से पाकिस्तान के छाछरों तक आते-जाते थे।
ब्रिगेडियर भवानीसिंह ने बलवंत को याद किया। फिर बलवंतसिंह हाथ में हथियार लेकर मुकाबला करने चल पड़े। जोंगा जीपों के खुले साइलेंसर की आवाज से पाकिस्तानी आर्मी को भारतीय सेना के टैंक रेजिमेंट के हमले का अहसास हुआ और उनके हौसले पस्त हो गए। दो योद्धाओं ने साहस दिखते हुए दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए।
वायुसैनिकों के अचूक निशाने

युद्ध के मैदान में पाकिस्तान के हवाबाजों ने उत्तरलाई पर चार हमले किए। लेकिन उनका एक भी हमला निशाने पर नहीं लगा। वहीं भारतीय वायुसेना के जांबाजों ने अचूक हमलों से पाकिस्तान की हवाई पट्टियों, बारूद से भरे रेलवे वैगनों, गोला बारूद व पेट्रोल भण्डारों को ध्वस्त कर दिया।
धोरों में लिखी वीरता की गाथा

जैसलमेर जिले के लोंगेवाला में मिली जीत भारतीय सेना के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, इसलिए सेना ने यहां युद्ध स्थल को ही संग्रहालय का रूप दिया है ताकि इसे देखने वाले भारतीय सेना की गौरवमयी विजय को महसूस कर सकें। देश के 120 सपूतों की वीरता की याद में बनाया गया लोंगेवाला युद्ध स्थल अब देश के युवाओं में देशभक्ति की भावना का संचार कर रहा है। भारत-पाक सीमा से 15 किमी पहले लोंगेवाला युद्ध स्थल पर कई सैलानी भी आते हैं।
इन शहीदों को सलाम

मगनाराम : बायतु के गिड़ा निवासी सिपाही मगनाराम ने 1971 के युद्ध में अपनी बहादुरी का परिचय दिया। उन्होंने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए, लेकिन लड़ते-लड़ते खुद भी वीरगति को प्राप्त हुए।
कुम्भाराम सियाग : सिपाही कुम्भाराम सियाग का जन्म माधासर बायतु में हुआ। वे 1970 में सेना में गए और कुछ ही समय बाद ही पाक ने भारत पर आक्रमण कर दिया। वे छुट्टी पर थे तभी सेना से बुलावा आया। छुट्टी बीच में छोड़कर वे सीमा चौकी पर पहुंचे, जहां युद्ध में शहीद हो गए।
दुर्जनसिंह राठौड़ : रेडाणा निवासी दुर्जनसिंह राठौड़ 1968 में सेना में भर्ती हुए। दिसम्बर 1971 में युद्ध मोर्च पर शूरवीरता दिखाते हुए उन्होंने शहादत प्राप्त की।

विशनसिंह सोढ़ा : गनर विशनसिंह का जन्म सिणधरी के पास भूंका थानसिंह में हुआ। उन्होंने 1968 में सेना की नौकरी शुरू की। उसके बाद हुए युद्ध भूमि में दुश्मनों की गोलियों का जबाव देते हुए शहादत पाई।
मघाराम कड़वासरा : ग्रेनेडियर मघाराम कड़वासरा का जन्म जान्दुओं की ढाणी बायतु में हुआ। भारत-पाक युद्ध के दौरान कश्मीर के मोर्चे पर दुश्मनों से लड़े। दुश्मन को करारी शिकस्त मिली, लेकिन वे शहीद हो गए।
देवाराम बेनीवाल : बायतु पनजी निवासी देवाराम बेनीवाल 1971 में सेना में भर्ती हुए। उसके तत्काल बाद भारत-पाक युद्ध में मोर्चा संभाला। जम्मू-कश्मीर के छम्ब सेक्टर में दुश्मनों से लोहा लेते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
नारायणराम लेगा : बायतु के निकट होलानी गांव निवासी नारायणराम की बचपन से फौज में जाने की इच्छा थी। 1971 में भारत-पाक युद्ध में दुश्मनों से लोहा लेते वीरगति को प्राप्त हुए।

दीपाराम सुथार : दीपाराम सुथार का जन्म संतरा गांव में हुआ। 18 साल की उम्र में सेना में गए। पाक को करारा जबाव देते हुए 7 दिसम्बर को जम्मू-कश्मीर के मोर्चे पर शहीद हुए।
नारायणराम चौधरी : नारायणराम चौधरी का जन्म नौसर गांव में हुआ। सेना में भर्ती होने के बाद तुरंत भारत-पाक का युद्ध हुआ। राइफलमैन नारायणराम ने जम्मू कश्मीर में मोर्चा संभाला और दुश्मनों को नाकों चने चबा दिए। 10 दिसम्बर को युद्ध मैदान में शहीद हुए।
बाघाराम लूखा : सिपाही बालाराम का जन्म कोसरिया में हुआ। वे 1971 में सेना में गए। प्राथमिक प्रशिक्षण के बाद उन्हें मुनावरतवी छम्ब सेक्टर जम्मू कश्मीर में तैनात किया। इस दौरान हुए युद्ध में शहीद हो गए।

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