
मध्यप्रदेश की राजनीति में यदि सिंधिया राजपरिवार न हो वो राजनीति अधूरी मानी जाती है। 6 दशकों से इस राजपरिवार का कोई न कोई सदस्य राजनीति को दिलचस्प बनाता रहा है। चाहे कांग्रेस में रहकर हो या भाजपा में। माना जाता है कि हमेशा से ही किंगमेकर की भूमिका निभाता रहा है और सत्ता की चाबी भी इन्हीं के पास रहती है। सिंधिया राजपरिवार का कोई भी सदस्य आज राजनीति में किंगमेकर की भूमिका निभाता है।
patrika.com पर राजनीतिक किस्सों की श्रंखला में हम बात कर रहे हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया की।
ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम सामने आते ही मध्यप्रदेश के राजनीतिक इतिहास में हुए एक बहुत बड़े सत्ता परिवर्तन की तरफ ध्यान जाता है। मार्च 2020 में ज्योतिरादित्य ने 22 विधायकों के साथ कांग्रेस से इस्तीफा दिया और भाजपा में शामिल हो गए थे। ज्योतिरादित्य अब केंद्र की मोदी सरकार में नागर विमानन मंत्री हैं।
ज्योतिरादित्य सिंधिया अब अपनी दादी राजमाता विजयाराजे सिंधिया की रणनीति की तरह काम कर रहे हैं। जिस प्रकार कांग्रेस छोड़ विजयाराजे ने जनसंघ ज्वाइन की और भाजपा की संस्थापक सदस्य तक बनीं। विजयराजे अंतिम समय तक भाजपा के साथ रहीं।
दादी ने भी गिराई थी कांग्रेस की सरकार
ज्योतिरादित्य सिंधिया से पहले उनकी दादी विजयाराजे सिंधिया भी कांग्रेस की सरकार गिरा चुकी हैं। बात उस समय की है जब विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस छोड़कर जनसंघ में शामिल हो चुकी थी। करैरा से जनसंघ की उम्मीदवार बनाई गई थीं और गुना सीट से स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरी थीं। दोनों ही चुनाव में विजयाराजे ने जीत दर्ज की थी। हालांकि बहुमत नहीं होने के कारण मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बन गई थी। कांग्रेस में भीतर ही भीतर फूट पड़ने लगी थी। तब रीवा रियासत के गोविंद नारायण सिंह ने 35 विधायकों के साथ जनसंघ में आने का प्रस्ताव विजयाराजे को दिया। तब विजयाराजे किंगमेकर की भूमिका में आ चुकी थीं। कांग्रेस नेता गोविंद नारायण सिंह 35 विधायकों के साथ टूटकर जनसंघ में पहुंच गए। एमपी में पहली बार जनसंघ की सरकार बन गई थी। गोविंद नारायण सिंह सीएम बनाए गए और विजयाराजे सिंधिया सदन की नेता। सत्ता का यह परिवर्तन सीधे तौर पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए चुनौती बन गया था। इंदिरा गांधी ने भी इसे गंभीरता से लिया और 20 माह में ही जनसंघ की सरकार गिरा दी। गोविंद नारायण सिंह वापस कांग्रेस में पहुंच गए। हालांकि इस चुनौती का खामियाजा राजमाता को इमरजेंसी में चुकाना पड़ा था। उन्हें जेल में डाल दिया गया और पीटा गया था।
पिता ने भी की थी कांग्रेस से बगावत
बात 1993 की है जब मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की सरकार थी। अपनी उपेक्षा से नाराज माधवराव ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर अपनी नई पार्टी बना ली थी। इसका नाम था मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस। हालांकि बाद में माधवराव कांग्रेस में लौट आए थे।
ऐसे हुई थी लोकतंत्र में राजतंत्र की शुरुआत
आजादी के बाद 1957 में रियासतों के विलय का दौर था। जीवाजी राव ने खुद ही अपनी रियासत को भारत में मिला लिया, क्योंकि रियासतों के गणतंत्र में विलय से बचने का यही एक मात्र तरीका था। तब जीवाजीराव सत्ता से अनमने हो गए थे। इसी दौर में पंडित नेहरू ने उन्हें कांग्रेस में शामिल होने का न्यौता दिया, लेकिन उन्होंने दो टूक मना कर दिया। उनका झुकाव उस दौर की हिन्दू महासभा की तरफ था। लेकिन, जीवाजी राव की जगह विजयाराजे को कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ाने का प्रस्ताव रखा, राजमाता मान गई। यहीं से लोकतंत्र में राजतंत्र की शुरुआत हो गई थी।
सिंधिया घराने की पहचान है गुना सीट
विजयाराजे सिंधिया को गुना सीट से पहली बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ाया गया। इस मुकाबले में राजमाता ने हिन्दू महासभा के देश पांडे को 60 हजार वोटों से हरा दिया। यही गुना सीट आज भी सिंधिया राजघराने की पहचान बनी हुई है।
सीएम से तनातनी के कारण छोड़ी कांग्रेस
गुना में जीत के बाद दूसरी बार हुए चुनाव में विजयाराजे ग्वालियर से चुनाव जीत चुकी थीं। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और इंदिरा के करीबी धाकड़ नेता द्वारिका प्रसाद मिश्र (डीपी मिश्रा) मुख्यमंत्री थे। ग्वालियर में छात्रों का आंदोलन चल रहा था, जिसे मुख्यमंत्री खत्म कराना चाहते थे, लेकिन राजमाता आंदोलन करने वालों के पक्ष में थीं। इस दौरान राजमाता और सीएम में तनातनी बढ़ गई। यहां तक कि महल में पुलिस तक पहुंच गई थी। इससे विजयाराजे का दिल टूट गया और उन्होंने कांग्रेस ही छोड़ दी।
Updated on:
02 Oct 2023 12:40 pm
Published on:
02 Oct 2023 12:38 pm
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