बारिश का भी नहीं असर
मिश्र ने बताया कि शिमला से देवदार की लकड़ी तथा धर्मशाला से कटे पत्थर, एक निश्चित माप में कटी स्लेटों एवं अन्य सामग्री का संकलन कर संग्रहालय लाया गया। इसके बाद वहां से कलाकार बुलाकर यहां गेट का निर्माण प्रारम्भ किया गया। सहायक क्यूरेटर डॉ. राकेश मोहन नयाल ने बताया कि पारम्परिक निर्माण शैली के अनुरूप लकड़ी और पत्थरों को एक समान दूरी पर जोड़ा गया। लकड़ी के स्लीपरों के ऊपर पत्थर फिर लकड़ी की चिनाई की गई। छत पर स्लेटों को कीलों के सहारे से इस प्रकार लगाया गया है कि वे तेज हवा या भारी वर्षा से भी खिसक न सके।
देवी-देवताओं की आकृतियां उकेरी गईं
गेट के सामने लोग प्रमुखत: बाबा बालकनाथ, हनुमान तथा अन्य देवी-देवताओं की आकृति बनाते हैं जिससे प्रवेश करते समय उन्हें नमन किया जा सके। हिमालय के मंदिरो में पगोडा, गुवंद, शिखर, शिवालय, सतलुज, पिरामिडिकल शैली के शिखर पाए जाते हैं। इस द्वार को बनाने के लिये कलाकारों द्वारा पगोडा, सतलुज और शिवालय शैली का मिश्रित प्रयोग किया गया है, जो कि हिमाचल के मंदिरों, महलों एवं पारम्परिक घरों की वास्तुकला को प्रदर्शित करता है। इस तरह के द्वारों को हिमाचल में अधिकांशत: परोल के नाम से जाना जाता है।