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राजस्थान का एक गांव ऐसा जहां घरों की दीवारों-छतों से झांकते हैं पेड़, आस्था ने बचाई हरियाली

Ban on cutting trees in Mandalda village: चित्तौड़गढ़। जिले में जहां वन क्षेत्र में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई आम हो चुकी है। पौधरोपण के बाद उनके संरक्षण को लेकर कोई नाम नहीं लेता। इन सब के उलट जिला मुख्यालय से करीब 14 किलोमीटर दूर मांदलदा गांव में पेड़ों को काटना महापाप माना जाता है।

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मांदलदा गांव में पेड़ों का संरक्षण, पत्रिका फोटो

मांदलदा गांव में पेड़ों का संरक्षण, पत्रिका फोटो

Ban on cutting trees in Mandalda village: चित्तौड़गढ़। जिले में जहां वन क्षेत्र में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई आम हो चुकी है। पौधरोपण के बाद उनके संरक्षण को लेकर कोई नाम नहीं लेता। इन सब के उलट जिला मुख्यालय से करीब 14 किलोमीटर दूर मांदलदा गांव पिछले करीब सौ बरस से पेड़ों के संरक्षण को लेकर मिसाल बना हुआ है।

मांदलदा गांव में गुर्जर समाज के करीब दो सौ घर हैं। यहां पहाड़ी पर देवनारायण भगवान का मंदिर है। गांव का 1100 बीघा क्षेत्र भगवान देवनारायण का माना जाता है। इस क्षेत्र में बहुतायत धोकड़े के विशाल पेड़ हैं। इस 11 सौ बीघा जमीन को ग्रामीण देवनारायण की बन्नी (जमीन) मानते हैं। इसलिए यहां पेड़ को काटना महापाप माना जाता है। पेड़ों के प्रति यहां ग्रामीणों की इतनी ज्यादा आस्था है कि लोग नए मकान का भी निर्माण करवाते हैं तो वहां उगे पेड़ों को काटने के बजाय नवनिर्मित मकान की छत से होकर सुरक्षित बाहर निकाल लेते हैं।

पेड़ों को मानते भगवान देवनारायण का वरदान

इस गांव में पेड़ों को भगवान देवनारायण का वरदान मानते हुए उनकी पूजा की जाती है। यह सिलसिला पिछले करीब सौ बरस से चला आ रहा है। ग्रामीणों में पेड़ों के संरक्षण को लेकर एकजुटता इतनी है कि वे किसी बाहरी व्यक्ति को भी यहां पेड़ नहीं काटने देते। यही वजह है कि गांव की पहाड़ी हमेशा हरी-भरी रहती है। गांव में सौ से ज्यादा मकान ऐसे हैं, जिनकी दीवारों और छतों से पेड़ों को सुरक्षित बाहर निकाला हुआ है।

बच्चों से लच्छे बंधवाकर करवाते हैं पेड़ों की पूजा

मांदलदा में पिछले सौ बरस से यह परंपरा चली आ रही है कि बड़े-बुजुर्ग नई पीढ़ी को बचपन से ही पेड़ों के महत्व और गांव की परंपरा के बारे में बताना शुरू कर देते हैं। बच्चों से देवनारायण मंदिर में पेड़ों के लच्छे बंधवाकर उनकी पूजा करवाई जाती है। उन्हें पेड़ नहीं काटने का संकल्प दिलाया जाता है। यही क्रम आगे से आगे की पीढ़ियों तक चला आ रहा है। यहां पेड़ों को परिवार के सदस्य के रूप में माना जाता है। पूरा गांव बरसों से पेड़ों के संरक्षण और उनकी रक्षा में जुटा हुआ है।

पेड़ काटकर ले गए, वापस लाकर रखना पड़ा

मांदलदा के रतन गुर्जर ने बताया कि उन्होंने करीब 10 साल पहले मकान बनाया। जमीन पर पेड़ उगा हुआ था। उसके काटने के बजाय छत से सुरक्षित बाहर निकाल दिया। मकान के बरामदे में उगा पेड़ भी छत से बाहर निकाल दिया गया। देवनारायण मंदिर के पुजारी नारायणलाल गुर्जर ने बताया कि पेड़ नहीं काटने की परंपरा 100 साल पुरानी है। बरसों पहले बाहरी लोग एक पेड़ काटकर ले गए थे, लेकिन उन्हें कटा हुआ पेड़ वापस मंदिर में लाकर रखना पड़ा।

गांव पर नहीं पड़ा कोविड का साया

गांव की बुजुर्ग भगवानी का कहना है कि एक तरफ कोविड के दिनों में कई लोगों की जान चली गई, लेकिन मांदलदा में बच्चे से लेकर बूढ़े तक कोई कोविड की चपेट में नहीं आया। क्यों कि यहां का वातावरण शुद्ध होने के साथ ही भरपूर ऑक्सीजन मिलती हैं। ग्रामीण कोविड से बचने का श्रेय पेड़ों को देते हैं।


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