
rani lakshmi bai wedding card: काशी के एक मराठी ब्राह्मण परिवार में 19 नवंबर 1828 को लक्ष्मी ने जन्म लिया था। उनका नाम मणिकर्णिका (manikarnika) रखा गया था। सभी लोग प्यार से मनु कहने लगे थे। जब वे 14 साल की थी तभी झांसी के महाराजा गंगाधर राव नेवालकर से मई 1842 में उनका विवाह हुआ। शादी की तैयारियां हुई। शादी के लिए आमंत्रण-पत्र भी तैयार किया गया था। उस विवाह पत्रिका में शादी का शुभ-मुहूर्त भी लिखा गया था। यह आज भी सुरक्षित है। लक्ष्मीबाई के शस्त्र आज भी सरकार के पास रखे हुए हैं।
patrika.com पर प्रस्तुत है रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस 18 जून के मौके पर उनसे जुड़ी कुछ यादें...।
यह है झांसी की रानी की शादी का कार्ड। (फोटो-सोशल मीडिया)
प्रसिद्ध कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान की वो कविता आज भी कई लोगों के कानों में गूंजती है। 'खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।' रानी लक्ष्मी बाई के पराक्रम पर लिखी यह कविता स्कूलों में भी पढ़ाई जाती है। 18 जून को लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर में देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति दे दी थी। रानी (jhansi ki rani) को वीरता, शौर्य और मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने के लिए हमेशा जाना जाता है। सरकार के पास कुछ दस्तावेज हैं, जो उनके बारे में जिज्ञासा पैदा करते हैं। उनमें से एक है लक्ष्मी बाई का शादी का कार्ड, जो अपने आप में बेहद दुर्लभ है।
मणिकर्णिका का विवाह झांसी के महाराज गंगाधऱ राव नेवलकर से 1842 में हुआ, तब उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। 1851 में उनका एक पुत्र हुआ, जो पैदा होने के चार माह बाद ही खत्म हो गया। महाराज गंगाधर ने अपनी मृत्यु से एक दिन पहले अपने चचेरे भाई के लड़के आनंद राव को गोद ले लिया था, जिसका नाम दामोदर राव रखा था।
लक्ष्मी के पिता बिट्ठूर के पेशवा ऑफिस में काम करते थे और लक्ष्मी अपने पिता के साथ पेशवा के यहां जाती थी। पेशवा भी लक्ष्मी को अपनी बेटी जैसा ही मानते थे। बहुत सुंदर दिखने वाली यह लड़की बहुत ही चंचल थी। पेशवा उसे छबीली कहकर पुकारने लगे थे।
मोरोपंत तांबे बिठूर के मराठा बाजीराव पेशवा के दरबार में नौकरी करते थे। मणिकर्णिका को वह सारी शिक्षाएं मिलीं जो उस दौर में महिलाओं को नहीं दी जाती थी। उन्हें एक बेटे के तरह यह सारी शिक्षा दी गई थी। उन्होंने घुड़सवारी, तलावारबाजी जैसे हुनर सीखे। यहां तक कि घर पर ही पढ़ना-लिखना सीखा। निशानेबाजी और मलखम्भ भी सीखा था।
लक्ष्मीबाई 18 साल की कम उम्र में ही झांसी की शासिका बन गई थी। उनके हाथों में झांसी का साम्राज्य आ गया था। ब्रिटिश आर्मी के एक कैप्टन ह्यूरोज ने लक्ष्मी के साहस को देख उन्हें सुंदर और चतुर महिला कहा था। यह वही कैप्टन था, जिसकी तलवार से लक्ष्मी ने प्राण त्यागे थे। इतिहास के पन्नों में यह भी मिलता है कि ह्यूरोज ने इसके बाद रानी को 'सेल्यूट' भी किया था।
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 में वराणसी के मराठी कराड़े ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनका पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भागिरथी सप्रे थे. लक्ष्मीबाई का मायके में नाम मणिकर्णिका तांबे थे और उन्हें प्यार से मनु कह कर पुकारा जाता था। चार साल की उम्र में मनु की माता का देहांत हो गया था। इसके बाद उनका लालन-पालन पिता ने किया।
पति गंगाधर की मौत हो चुकी थी। लक्ष्मी बाई राजकाज संभालने लगी थीं। उसी दौर में गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी की नीति के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी ने लक्ष्मीबाई के गोद लिए बालक को वारिस मानने से इनकार कर दिया। रानी ने अंग्रेजों की यह दलील मानने से इनकार कर दिया। उन्हें दो टूक कह दिया कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। इसी बात से अंग्रेजों और रानी लक्ष्मीबाई के बीच युद्ध का ऐलान हो गया था। रानी ने भी तलवार उठा ली थी।
अंग्रेजों ने झांसी पर 23 मार्च 1858 को हमला कर दिया और 3 अप्रैल तक लगातार युद्ध लड़ते रहे। जिसमें तात्या टोपे ने रानी का साथ दिया, जिसकी वजह से अंग्रेज झांसी में 13 दिन तक नहीं घुस पाए थे। अंततः 4 अप्रैल को अंग्रेज झांसी में घुस गए और रानी को झांसी छोड़ना पड़ गया। रानी एक ही दिन में कालपी पहुंच गई, जहां उन्हें नाना साहेब पेशवा, राव साहब और तात्या टोपे का साथ मिल गया। इसके बाद वे सभी ग्वालियर पहुंचे, जहां दोनों पक्षों में 17 जूनको निर्णायक युद्ध हुआ।
युद्ध में रानी की मृत्यु के अलग-अलग मत भी मिलते हैं। लॉर्ड केनिंगकी रिपोर्ट सर्वाधिक विश्वसनीय मानी जाती है। ह्यूरोज की घेराबंदी और संस्साधनों की कमी के चलते रानी लक्ष्मीबाई घिर गई थीं। ह्यूरोज ने पत्र लिखकर रानी से एक बार फिर समर्पण करने को कहा था, लेकिन रानी अपने किले से निकलकर मैदान में उतर आई थीं। उनका इरादा दो तरफ से घेरने का था, लेकिन तात्या टोपे ने आने में देरी कर दी और रानी अकेली पड़ गई थी।
कैनिंग की रिपोर्ट के मुताबिक रानी को लड़ते हुए गोली लगी थी, जिसके बाद विश्वस्त सिपाहियों के साथ ग्वालियर शहर में मौजूद रामबाग तिराहे से नौगजा रोड पर आगे बढ़ते हुए स्वर्ण रेखा नदी की ओर आगे बढ़ीं। नदी के किनारे रानी का नया घोड़ा अड़ गया, रानी ने दूसरी बार नदी पार करने का प्रयास किया, लेकिन वह घोड़ा वहीं अड़ गया, वो आगे बढ़ने को तैयार नहीं था, अंतत गोली लगने से खून पहले ही बह रहा था और रानी वहीं पर बेहोश होकर गिर पड़ी थीं।
यह भी उल्लेख मिलता है कि एक तलवार ने उसके सिर को एक आंख समेत अलग कर दिया और रानी शहीद हो गई थी। यह भी बताया जाता है कि शरीर छोड़ने से पहले उन्होंने अपने साथियों से कहा था कि उनका शरीर अंग्रेजों के हाथ नहीं लगना चाहिए। इसके बाद बाबा गंगादास की शाला के साधु झांसी की पठान सेना की मदद से शाला में ले आए थे। वहां तत्काल उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। रानी की वीरता देख ह्यूरोज ने भी लक्ष्मीबाई की तारीफ की थी और उन्हें सेल्यूट किया था। बलिदान का यह दिन इतिहास के पन्नों में 17-18 जून का मिलता है। फिर भी इस बलिदान के आगे तारीखें कभी बढ़ी नहीं रही।
Updated on:
17 Jun 2025 06:05 pm
Published on:
19 Nov 2021 09:51 am
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