हम देखते हैं कमोबेश सभी स्कूल्स का अधिक फोकस बच्चों की बुद्धिमता बढ़ाने पर होता है। बौद्धिक क्षमता पर अधिक जोर देकर वे चाहते हैं कि बच्चा अपनी बौद्धिक क्षमता के जरिए हर एक फील्ड में ऊंचाइयां छुए। प्रतियोगिता के इस युग में वह खुद को बेहतर तरीके से साबित कर सके। और स्कूल्स की यह कोशिश होनी भी चाहिए। लेकिन बौद्धिकता के साथ-साथ भावनात्मक स्तर का विकास भी जरूरी होता है जो जीवन कौशल का एक हिस्सा है। भावनात्मक रूप से मजबूत बच्चा जीवन में आने वाली हर तरह की परेशानियों, विभिन्न हालात से जूझने की क्षमता रखता है।
हर एक बच्चे में कुछ खास गुण होते हैं। उसकी अपनी खूबियां होती हैं या कुछ अलग हटकर क्वालिटी उसमें होती है। इसके मायने यह भी है कि हर एक बच्चे की कामयाबी का आधार एक ही तरह का पेटर्न न्यायसंगत नहीं है। क्योंकि हर बच्चे की योग्यता आंकने की एक ही कसौैटी बच्चों पर अनचाहा दबाव ही नहीं बनाती बल्कि उनके स्वाभाविक गुण और विकास को भी बाधित करती है। ऐसे में स्कूल बच्चे के स्वाभाविक गुण, उसकी दिलचस्पी आदि को आधार बनाकर उसका बेहतर विकास कर सकता है। इससे बच्चा आशावादी भी बना रहता है।
बच्चे कोमल मिट्टी के समान होते हैं। इन्हें जैसा आकार दिया जाता है उसी रूप में ढल जाते हैं। बचपन में बताई गई बातें और आसपास के माहौल से जो कुछ सीखने को मिलता है, वैसे ही उनकी मानसिकता बनती है। ऐसे में स्कूल की भूमिका और महत्ता और बढ़ जाती है। स्कूलों में जीवन मूल्य, भावनाएं, सम्मान, शिष्टाचार आदि बातों को तरजीह देनी चाहिए। इनका व्यावहारिक रूप स्कूल्स में हो। इससे बच्चा स्कूल से भावनात्मक रूप से भी जुड़ता है।
जीवन कौशल शिक्षा, पालन-पोषण पर भी सकारात्मक प्रभाव डालती है। जब बच्चे प्रभावी कम्यूनिकेशन, अच्छे व्यवहार और आत्म-जागरूकता के कौशल सीखते हैं, तो माता-पिता अपने बच्चों और उनकी जरूरतों को बेहतर तरीके से समझते हैं। इससे पेरेंट्स और बच्चे के बीच एक मजबूत भावनात्मक रिश्ता बनता है। माता-पिता और बच्चों का यह रिश्ता घर में एक खुशनुमा माहौल बनाता है।