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1971 के युद्ध में भारतीय सेना के लिए जोश और जुनून बने सबसे बड़े हथियार, हर मोर्चे पर टूटा दुश्मन

Victory Day Special: वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारतीय सेना के लिए जोश, जुनून और अनुशासन ही सबसे प्रभावी हथियार साबित हुए। साहस, सशक्त नेतृत्व और सटीक रणनीति के सामने दुश्मन कहीं भी टिक नहीं सका।

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1971 में भारत-पा​क युद्ध के योद्धाओं ने साझा किए संस्मरण, पत्रिका फोटो

1971 में भारत-पा​क युद्ध के योद्धाओं ने साझा किए संस्मरण, पत्रिका फोटो

Victory Day Special: जयपुर। वर्ष 1971 भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारतीय सेना के लिए जोश, जुनून और अनुशासन ही सबसे प्रभावी हथियार साबित हुए। साहस, सशक्त नेतृत्व और सटीक रणनीति के सामने दुश्मन कहीं भी टिक नहीं सका। हर मोर्चे पर भारतीय सैनिकों ने दुश्मन को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। इस युद्ध में शामिल रहे योद्धाओं का कहना है कि वे दिन आज भी याद आते हैं तो, गर्व महसूस होता है। वहीं, शहादत देने वाले साथियों की याद आंखें नम कर देती है।

सीमा में 80 किमी तक घुसी सेना, चौकियां छोड़ भागा दुश्मन

छाछरो वॉर योद्धा खातीपुरा निवासी रिटायर्ड कैप्टन रामसिंह तंवर बताते हैं कि वे 1971 युद्ध के दौरान बाड़मेर सेक्टर में सिग्नल ऑपरेटर के रूप में तैनात थे। उनका दायित्व दुश्मन की पोस्टों की जानकारी जुटाना और सिग्नलिंग करना था। वे बताते हैं कि, जयपुर के पूर्व राजघराने के ब्रिगेडियर भवानी सिंह के नेतृत्व में आधी रात को मॉडिफाइड जोंगा जीपों के जरिये पाकिस्तान की सीमा में करीब 80 किलोमीटर अंदर छाछरो तक प्रवेश किया गया।

जीपों की रोशनी में दुश्मन स्थिति समझ नहीं पाया और भारतीय सेना की मौजूदगी का पता चलते ही चौकियां छोड़कर भाग निकला। इसके बाद सेना ने दुश्मन की पोस्टों पर कब्जा कर लिया। पुंछ के रास्ते भी 40 किलोमीटर अंदर तक कार्रवाई की गई। मजबूत नेतृत्व ही यूनिट की सबसे बड़ी ताकत थी, इसी कारण ब्रिगेडियर भवानी सिंह को महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।

मुक्ति वाहिनी के साथ ढाका एयरपोर्ट पर कब्जा

पूर्वी मोर्चे की यादें साझा करते हुए खातीपुरा निवासी रिटायर्ड ऑर्डरली कैप्टन भंवर सिंह बताते हैं कि युद्ध की आहट मिलते ही उनकी यूनिट को अगरतला के टी-गार्डन में तैनात किया गया। वहां बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी के साथ रहकर प्रशिक्षण लिया गया। युद्ध शुरू होते ही यूनिट ढाका की ओर बढ़ी। चांदपुर गांव में पहली मुठभेड़ हुई, जिसमें यूनिट के एक अधिकारी सहित 12 जवान शहीद हो गए। इसके बाद पोबाइल और बांडी ब्राह्मणा गांव में भी संघर्ष हुआ, लेकिन यूनिट आगे बढ़ती रही। रातभर पैदल मेघना नदी पार कर ढाका एयरपोर्ट पर कब्जा किया गया। करीब डेढ़ माह तक वहां तैनाती रही और पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण के बाद वापसी हुई।

दरूचियां पोस्ट पर फहराया तिरंगा

झोटवाड़ा निवासी रिटायर्ड ऑर्डरली कैप्टन अली हसन खान बताते हैं कि वे 1965 में सेना में भर्ती हुए और 1971 में 14 ग्रेनेडियर यूनिट में तैनात थे। छह और 7 दिसंबर की रात अटिया क्षेत्र में दुश्मन के सप्लाई पॉइंट पर रेड की गई। 15 दिसंबर को दुश्मन देश की दरूचियां पोस्ट पर तिरंगा फहराया गया। इसके बाद हुए भीषण हमले में उनके साथ 100 से अधिक जवान घायल हुए। 16 दिसंबर को सीजफायर के चलते दरूचियां पोस्ट छोड़नी पड़ी। वे बताते हैं कि, शहीद साथियों की स्मृति में वे पिछले तीन वर्ष से 14 दिसंबर को दरूचियां डे मना रहे हैं।