कविता पुरी ने बताया कि उनका परिवार बंटवारे से पहले ही इंग्लैंड चला गया था। वो वहां बड़ी होते हुए अपने दादा से बंटवारे की कहानियां सुनती। दादा अपने रिश्तेदारों के बारे में सुनते तो वहां रोने लगते और अपनी इस तीसरी पीढ़ी को बंटवारे का दर्द सुनाया करते। इसके कविता पुरी जब पत्रकार पेशे में आई तो ब्रिटेन में रह रहे ऐसे कितने ही लोगों से मिली, जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान होते हुए ब्रिटेन में आ बसे। या भारत में रहने की उम्मीद कर पाकिस्तान से आए लोगों को जब लगा कि अपना रिफ्यूजी का टैग वो नहीं हटा पा रहे तो एक नई पहचान के लिए ब्रिटेन जा बसे।
ऐसे कई लोगों से बात करते हुए कविता पुरी ने अपनी किताब ‘पार्टिशन वॉइसेज’ में दर्द दर्ज किया। अपनी जमीन छोड़ देने का दर्द, अपनी मिट्टी की खुश्बू एक बार और लेने की चाहत के साथ मरते लोगों का दर्द, उन्होंने अपनी इस किताब में जीया है। कविता कहती हैं कि 1947 के समय की पीढ़ी का ज्यादातर समय अपने लिए घर ढूंढने या एडजस्ट होने में चला गया। अब जब वो सैटल हैं तो उनके दर्द फिर उभर आते हैं।
जख्मों पर कोई बात नहीं करता
यहां कविता पुरी ने कहा कि इस पर कितनी ही फिल्में बन गई, कितनी ही किताबें आ गई, लेकिन पार्टिशन में रिफ्यूजी बने लोगों के लिए किसी ने ऐसा काम नहीं किया जो उनके टूटे जीवन को जोड़ सके। मुझे हैरानी है कि हर बात में स्टेच्यु बनाने वाले देश में बंटवारे में मारे गए लोगों के लिए कोई स्मारक या दुनिया की सबसे बड़ी बंटवारा त्रासदी को जानने के लिए कोई म्यूजियम तक नहीं।
वहीं उनके साथ यहां मंच साझा कर रहे सेम डलरिंपल ने अपने प्रोजेक्ट दास्तान के बारे में बताया। इसके जरिए वे भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बंटवारे के बाद, इधर से उधर गए लोगों को फिर से उनकी यादों से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।