
अंतिम संस्कार की फाइल फोटो: पत्रिका
हाईकोर्ट ने सार्वजनिक भूमि पर स्थित कब्रिस्तान और अंतिम संस्कार स्थलों से किसी समाज का अधिकार छीनने के प्रयासों पर नाराजगी जताई। कोर्ट ने किसी समाज को अंतिम संस्कार की गरिमा से वंचित करने को मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताते हुए टिप्पणी की कि किसी समाज को श्मशान या कब्रिस्तान तक पहुंच से वंचित करना संविधान के वादे की जड़ पर प्रहार करने जैसा है।
कोर्ट ने सुझाव दिया कि ऐसी नीति बनाई जाए जिससे सामाजिक विभाजन के चलते कोई भी वर्ग अंतिम संस्कार की गरिमा से वंचित नहीं रहे। राज्य सरकार से इस मामले में दो सप्ताह में शपथ पत्र पेश करे जिसमें यह स्पष्ट किया जाए कि दफनाने और दाह संस्कार जैसी व्यवस्थाओं से संबंधित राजकीय भूमि का नियमन किस प्रकार किया जा रहा है और क्या सभी वर्गों के लिए समान, गैर-भेदभावपूर्ण व्यवस्था सुनिश्चित की जा सकती है।
न्यायाधीश डॉ. पुष्पेंद्र सिंह भाटी और न्यायाधीश बिपिन गुप्ता की खंडपीठ ने कांचन पाटील की याचिका पर सुनवाई की। अधिवक्ता मोतीसिंह ने कोर्ट को बताया कि जो जमीन लंबे समय से दफनाने के लिए उपयोग में आ रही है वह सार्वजनिक भूमि है और उसे कभी किसी निजी संस्था या वक्फ बोर्ड को औपचारिक रूप से आवंटित नहीं किया गया। इसके बावजूद कब्जे के आधार पर याचिकाकर्ता के समाज के लोगों को अंतिम संस्कार करने से रोका जा रहा है। वहीं वक्फ बोर्ड ने कहा कि भूमि लगातार उपयोग के कारण वक्फ की है और इसका संचालन बोर्ड की ओर से मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के तहत किया जाता है।
कोर्ट ने कहा कि श्मशान और कब्रिस्तान की व्यवस्था सुनिश्चित करना राज्य सरकार का दायित्व है। नगर पालिका अधिनियम और पंचायती राज अधिनियम का हवाला देते हुए कहा कि सम्मानजनक जीवन का अधिकार मृत्यु के बाद भी जारी रहता है। सार्वजनिक भूमि पर किसी एक जाति या वर्ग का वर्चस्व स्वीकार्य नहीं हो सकता। कोर्ट ने एनएचआरसी के दिशा-निर्देशों का उल्लेख कर कहा कि राज्य को कब्रिस्तान व दाह स्थलों पर समान अधिकार सुनिश्चित करने चाहिए।
Published on:
01 Sept 2025 10:30 am
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