यहां बृज 84 कोस में आने वाले भगवान कृष्ण के स्थलों को रंगों से आकार देकर सजाया जाता है, जिन्हें देखने के प्रति लोगों में उत्साह नजर आता है। यहां के प्रसिद्ध मदनमोहनजी मंदिर में रियासतकाल से चली आ रही यह परम्परा आज भी कायम है। हालांकि रियासतकाल में घर-घर में बनाई जाने वाली सांझी अब बदलते परिवेश में लुप्त हुई है।
प्रतिदिन बिखरती है बृज की छटा
मदनमोहनजी के मंदिर की सांझी बृजमंडल में श्री कृष्ण की लीला स्थली से जुड़ी हुई हैं। सांझी में प्रतिदिन पूर्णिमा-कमल, प्रतिपदा-मधुवन, तालवन, कुमोदवन, बहुलावन, शांतनु कुंड, राधा कुंड, कुसुम सरोवर, गोवर्धन, रामवन, बरसाना, नंदगाव, कोकिला वन, शेषशायी कोड़ानाथ, वृन्दावन, मथुरा, गोकुल, दाऊजी एवं अन्तिम दिन कोट बनाया जाता है। इसमें राधा-कृष्ण की युगल झांकी होती है। पित्र मोक्ष अमावस्या को संजा पर्व का समापन होता है। इतिहासकार वेणुगोपाल शर्मा बताते हैं कि सांझी में बृज 84 कोस की परिक्रमा में आने वाले भगवान कृष्ण की लीला स्थलों को दर्शाया जाता है।
मदनमोहनजी के मंदिर की सांझी बृजमंडल में श्री कृष्ण की लीला स्थली से जुड़ी हुई हैं। सांझी में प्रतिदिन पूर्णिमा-कमल, प्रतिपदा-मधुवन, तालवन, कुमोदवन, बहुलावन, शांतनु कुंड, राधा कुंड, कुसुम सरोवर, गोवर्धन, रामवन, बरसाना, नंदगाव, कोकिला वन, शेषशायी कोड़ानाथ, वृन्दावन, मथुरा, गोकुल, दाऊजी एवं अन्तिम दिन कोट बनाया जाता है। इसमें राधा-कृष्ण की युगल झांकी होती है। पित्र मोक्ष अमावस्या को संजा पर्व का समापन होता है। इतिहासकार वेणुगोपाल शर्मा बताते हैं कि सांझी में बृज 84 कोस की परिक्रमा में आने वाले भगवान कृष्ण की लीला स्थलों को दर्शाया जाता है।
दिनभर करते मेहनत
यहां फूटाकोट के समीप के निवासी 78 वर्षीय रमेश शर्मा बताते हैं कि उनके यहां चबूतरे पर काफी बड़े आकार की सांझी तैयार की जाती थी। उनके पिता नित्यानन्द शर्मा सांझी बनाते थे। उनके साथ गोपीलाल चतुर्वेदी, राधामोहन शर्मा, रामरज शर्मा, गिरधारीलाल आदि भी सांझी में सहयोग करते। वे स्वयं भी तैयारियों में हाथ बंटाते। दिनभर की मेहनत के बाद सांझी तैयार होती, जिसे देखने के लिए लोगों का तांता लगा रहता था। शर्मा बताते हैं कि सांझी को सजाने के लिए गुलाल के अलावा कोयले, चावल आदि को पीसकर अलग-अलग रंग तैयार किए जाते, जिन्हें पतले कपड़े में छानकर सांझी में रंग भरे जाते थे।
यहां फूटाकोट के समीप के निवासी 78 वर्षीय रमेश शर्मा बताते हैं कि उनके यहां चबूतरे पर काफी बड़े आकार की सांझी तैयार की जाती थी। उनके पिता नित्यानन्द शर्मा सांझी बनाते थे। उनके साथ गोपीलाल चतुर्वेदी, राधामोहन शर्मा, रामरज शर्मा, गिरधारीलाल आदि भी सांझी में सहयोग करते। वे स्वयं भी तैयारियों में हाथ बंटाते। दिनभर की मेहनत के बाद सांझी तैयार होती, जिसे देखने के लिए लोगों का तांता लगा रहता था। शर्मा बताते हैं कि सांझी को सजाने के लिए गुलाल के अलावा कोयले, चावल आदि को पीसकर अलग-अलग रंग तैयार किए जाते, जिन्हें पतले कपड़े में छानकर सांझी में रंग भरे जाते थे।
घर-घर में बनती थी सांझियां
शहर के बुजुर्ग बताते हैं कि करीब तीन दशक पहले तक करौली में अनेक घरों में सांझी बनाने की परम्परा प्रचलित थी। जहां कई घरों में घरों के बाहर चबूतरों पर सांझी बनाई जाती थी, वहीं अनेक घरों में बालिकाएं दीवारों पर गोबर से सांझी बनाकर सायंकाल पूजन करती थीं।
शहर के बुजुर्ग बताते हैं कि करीब तीन दशक पहले तक करौली में अनेक घरों में सांझी बनाने की परम्परा प्रचलित थी। जहां कई घरों में घरों के बाहर चबूतरों पर सांझी बनाई जाती थी, वहीं अनेक घरों में बालिकाएं दीवारों पर गोबर से सांझी बनाकर सायंकाल पूजन करती थीं।
यहां हटवारा के समीप की निवासी महिला उर्मिला देवी बताती हैं कि सांझी के लिए तीसरे पहर से ही तैयारी शुरू हो जाती और कई घण्टों की मेहनत के बाद सांझी बनती है। इसमें विभिन्न रंगों को बनाकर आकृति उकेरी जाती थी। पूजन के दौरान गीत गाए जाते थे।
संध्या को गूंजते सांझी गीत
इतिहासहार वेणुगोपाल शर्मा बताते हैं कि बृज क्षेत्र के बैष्णव मंदिरों से यह संस्कृति विकसित हुई। अभी गांवों में यह परम्परा देखने को मिलती है। यहां बालिकाएं राधा-कृष्ण की आकृतियां गोबर से बनाकर अपने घरों की दीवारों पर चिपकाती तथा सायंकाल उनका पूजन करती हैं। ऐसी भी मान्यता है कि इस दौरान कन्याएं सांझी को वरदायिनी देवी के रूप में पूजती हैं। इस दौरान सांझी गीत भी गाये जाते हैं।
इतिहासहार वेणुगोपाल शर्मा बताते हैं कि बृज क्षेत्र के बैष्णव मंदिरों से यह संस्कृति विकसित हुई। अभी गांवों में यह परम्परा देखने को मिलती है। यहां बालिकाएं राधा-कृष्ण की आकृतियां गोबर से बनाकर अपने घरों की दीवारों पर चिपकाती तथा सायंकाल उनका पूजन करती हैं। ऐसी भी मान्यता है कि इस दौरान कन्याएं सांझी को वरदायिनी देवी के रूप में पूजती हैं। इस दौरान सांझी गीत भी गाये जाते हैं।