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अनूठी परम्परा: हाड़ौती में यहां दहलीज पर कदम रखते ही पड़ती है गालियां, गुस्से की जगह होठों पर रहती है मुस्कान

locationकोटाPublished: Mar 21, 2019 03:40:01 pm

Submitted by:

​Zuber Khan

विरह के रस में डूबकर जब ‘रूह सुर्ख होती, तब होली का फाग हाड़ौती का रुख करता… दहलीज पर कदम रखते ही जब गालियों में डूबी मनुहार कानों में पड़ती तो होठों पर तिरछी मुस्कान बिखर जाती…

Holi festival

अनूठी परम्परा: हाड़ौती में यहां दहलीज पर कदम रखते ही पड़ती है गालियां, गुस्से की जगह होठों पर रहती है मुस्कान

कोटा. विरह के रस में डूबकर जब ‘रूह सुर्ख होती, तब होली का फाग हाड़ौती का रुख करता… दहलीज पर कदम रखते ही जब गालियों में डूबी मनुहार कानों में पड़ती तो होठों पर तिरछी मुस्कान बिखर जाती…इसी बीच हरबोला आता और चेहरे पर चढ़े रंगों के नकाब उतार फेंकता…हाड़ौती के लोक जीवन की होली कुछ ऐसे ही सतरंगी थी…।
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साहित्यकार अतुल कनक बताते हैं कि यहां रसिया गाए जाने की परंपरा नहीं थी। फिल्मों की बदौलत समाज को ढ़ाफिया(ढोलक पर गाए जाने वाले गीत) जरूर मिला, लेकिन लोकगीतों में इसकी कोई जगह नहीं थी। हाड़ौती का लोक जीवन फाग की विरह वेदना में डूबा था। कन्हैया लाल शर्मा ने अपनी किताब ‘हाड़ौती की भाषा और साहित्य में इन फागों को बखूबी संजोया है।
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फागंड़ा की आई, होली मचे झड़ाका सूं, वो गया राजन, वो गया पी, वो गया कोस पचास, सर बदनामी ले गया रे, कदीना बैठ्या पास… हो या फिर ‘दाड्यू सूखे डागले रे, घर सूखे कचनार, गोरी सूखे बाप रे, परदेशी की नार से लेकर ‘चावल मूंगा की खीचड़ी, घी बना खाई न जाए, सब सुख म्हारा बाप के, पण पी बिना रह्यो न जाए जैसे फाग विरह की चरम वेदना को सहज ही व्यक्त करते हैं।
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दहलीज के अंदर शुरू होती छेड़
होली का रिश्ता उमंग से जुड़ा है, जो हाड़ौती में हास्य-व्यंग का रूप अख्तियार कर लेती है। हाड़ौती के लोक जीवन में इस भाव को व्यक्त करने के लिए होली पर गालियां गाने की परंपरा थी। लोक के मर्म में इन गालियों को बुरा नहीं माना जाता, चेहरों पर गुस्से की बजाय मुस्कान बिखर जाती, क्योंकि इनमें तिरस्कार नहीं, मनुहार घुली थी। महत्वपूर्ण बात यह कि इन गीतमई गालियों की रचयिता महिलाएं होतीं।
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खो गया हरबोला

होली पर हाड़ौती की व्यंग्य परंपरा का सबसे अनूठा अक्स थी ‘हरबोलाÓ…। लोक जागृति का यह अग्रदूत रंगों में डूबे त्योहार पर मुअज्जिज लोगों के घर जाकर छंदबद्ध तरीके से उनके जीवन की खामियां गिनाता था। बदले में झोली भर उपहार पाता, लेकिन बदलते दौर में सच को बर्दाश्त करने की हद जैसे-जैसे खत्म हुई…इस अनूठी परंपरा का दम भी टूटता चला गया।
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