साहित्यकार अतुल कनक बताते हैं कि यहां रसिया गाए जाने की परंपरा नहीं थी। फिल्मों की बदौलत समाज को ढ़ाफिया(ढोलक पर गाए जाने वाले गीत) जरूर मिला, लेकिन लोकगीतों में इसकी कोई जगह नहीं थी। हाड़ौती का लोक जीवन फाग की विरह वेदना में डूबा था। कन्हैया लाल शर्मा ने अपनी किताब ‘हाड़ौती की भाषा और साहित्य में इन फागों को बखूबी संजोया है।
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फागंड़ा की आई, होली मचे झड़ाका सूं, वो गया राजन, वो गया पी, वो गया कोस पचास, सर बदनामी ले गया रे, कदीना बैठ्या पास… हो या फिर ‘दाड्यू सूखे डागले रे, घर सूखे कचनार, गोरी सूखे बाप रे, परदेशी की नार से लेकर ‘चावल मूंगा की खीचड़ी, घी बना खाई न जाए, सब सुख म्हारा बाप के, पण पी बिना रह्यो न जाए जैसे फाग विरह की चरम वेदना को सहज ही व्यक्त करते हैं।
दहलीज के अंदर शुरू होती छेड़
होली का रिश्ता उमंग से जुड़ा है, जो हाड़ौती में हास्य-व्यंग का रूप अख्तियार कर लेती है। हाड़ौती के लोक जीवन में इस भाव को व्यक्त करने के लिए होली पर गालियां गाने की परंपरा थी। लोक के मर्म में इन गालियों को बुरा नहीं माना जाता, चेहरों पर गुस्से की बजाय मुस्कान बिखर जाती, क्योंकि इनमें तिरस्कार नहीं, मनुहार घुली थी। महत्वपूर्ण बात यह कि इन गीतमई गालियों की रचयिता महिलाएं होतीं।
खो गया हरबोला होली पर हाड़ौती की व्यंग्य परंपरा का सबसे अनूठा अक्स थी ‘हरबोलाÓ…। लोक जागृति का यह अग्रदूत रंगों में डूबे त्योहार पर मुअज्जिज लोगों के घर जाकर छंदबद्ध तरीके से उनके जीवन की खामियां गिनाता था। बदले में झोली भर उपहार पाता, लेकिन बदलते दौर में सच को बर्दाश्त करने की हद जैसे-जैसे खत्म हुई…इस अनूठी परंपरा का दम भी टूटता चला गया।