खास बात यह कि कोड़ों की मार झेलने के बाद मन में कोई द्वेष नही रहता, बल्कि मार के संग होली की खुमारी और चढ़ती जाती। इतिहासविद् फिरोज अहमद बताते हैं कि हमारे यहां रियासत काल से ही होली, दीवाली, दशहरा पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाए जाते रहे हैं, इसमें यहां के शासकों की भी काफी भागीदारी रहती थी।
कोटा में रंग-गुलाल के संग महिलाओं ने खूब बरसाए कोड़े, Video में देखिए पूर्व राजपरिवार की कोड़ामार होली
होली से दो दिन पहले ही हो जाती थी तैयारियां
इतिहासकार फिरोज अहमद बताते हैं कि शहर के कई इलाकों में कोड़ामार होली की रंगत बिखरती थी। एक ओर महिलाएं कोड़े बरसाती, दूसरी ओर पुरुष डोलचियों से पानी उढ़ेलते। होली का अलग ही आनंद बरसता। लोग इसके लिए एक-दो दिन पूर्व ही तैयारी कर लेते। महिलाएं कपड़े में चुभने वाले कंकर रखकर गांठ बांधकर कोड़े तैयार करती। जगह-जगह केसुला के फूलों का पानी भरा जाता था। एक दो दिन पहले फूलों को पानी में गला दिया जाता। इससे तैयार रंगों को पानी में घोला जाता और खेळों मेंं भरवाया जाता। फिर होली पर्व पर पानी की बौछार के साथ रंग बिखरते। प्रकृति के रंगों से होली खेलते।
होलिका दहन के चौथे दिन भी खेली जाती थी होली इतिहासकार फिरोज अहमद बताते हैं कि होलिका दहन के चौथे दिन चैत्र कृष्ण चतुर्थी पर भी कोटा में रियासतकाल में होली खेली जाती थी। महाराव उम्मेद सिंह गढ़ पैलेस से हाथी पर सवार होकर पूरे लवाजमे के साथ जनता-जनार्दन से होली खेलने के लिए जाते थे।
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कोटा दरबार जनता के साथ खेलते थे होली
इतिहासकार फिरोज अहमद बताते हैं कि दरबार उम्मेद सिंह पहले जनाना महल में पहले महारानियों के संग होली खेलते। फिर जलेब चौक में भाई, बंधु, उमराव,जागीदारों के साथ। इसके बाद वे हाथी पर सवार होकर लोगों के बीच होली खेलने के लिए निकलते। रामपुरा डाकखाना से वे हाथी से उतरकर कार या बग्घी में सवार होकर कोठी चले जाते थे। शाम को बृजविलास बाग में पातिया व दरीखाना होता था। इसमें इनाम दिए जाते। यहां के शासक घोड़े पर सवार होकर जनता के साथ होली खेलने की भी परम्परा रही है।