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Exclusive: दर-दर की ठोकर खाकर पहुंचे अमरीका, प्रो बनकर भारत लौटे वेद प्रकाश बटुक-देखें वीडियो

प्रख्यात विद्वान प्रोफेसर वेद प्रकाश बटुक ने अमरीका में जगाई थी हिन्दी साहित्य की अलख  

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मेरठ

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Rahul Chauhan

Jan 10, 2018

Pro. Ved Prakash Batuk

मेरठ। जीवन में अनेक घटनाएं अप्रत्याशित होती हैं। अमरीका जाना भी उन्हीं घटनाओं में से एक है। मेरा सपना अमरीका में जाकर कोई रंक से राजा बनना नहीं था। प्रश्न तो यह है कि मैं भारत से बाहर गया ही क्यों। यह कहना है हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार और अमरीका के बर्कले विवि में हिन्दी के प्रोफेसर रहे वेद प्रकाश बटुक का। विदेश में रहकर भारतीय साहित्य की अलख जगाने वाले वेद प्रकाश बटुक उन लोगों के लिए आदर्श और प्रेरणाश्रोत हैं, जो लोग आज हिन्दी को हेय दृष्टि से देखते हैं। 40 के दशक में किन परिस्थितियों में वे विदेश गए और वहां पर मजदूरी करके नौकरी प्राप्त की। इस बारे में उन्होंने पत्रिका.कॉम से बातचीत की

मेरठ में एमए और इसके बाद प्रभाकर, साहित्य रत्न, साहित्यालंकार की उपाधि प्राप्त करने के बाद समस्या थी एक नौकरी पाने की जो आसान नहीं थी। उस समय उनके सामने दो संकट थे पहला धन का आभाव और दूसरा बड़े भाई और स्वतंत्रता सेनानी सुन्दरलाल जी के आदर्श। सुन्दरलाल जी 1921 के असहयोग आंदोलन में पहली बार 15 वर्ष की आयु में जेल गए थे। 1931 से जवाहर लाल नेहरू के साथ बरेली जेल में थे।

साहित्यकार बटुक ने बताया कि कक्षा सात में उन्हें पढ़ी राहुल सांकृत्यायन की दो पुस्तकों घुमक्कड़ शास्त्र और 'साम्यवाद ही क्यों' ने बटुक जी के जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। उसी के कारण उन्होंने अपना एकमात्र जीवन का उद्देश्य बना लिया। घर छोड़ो, दुनिया घूमो, मजदूरी करते रहो। वेद जी ने निर्णय तो ले लिया लेकिन उन दिनों सब कुछ इतना आसान नहीं था। पासपोर्ट बनने में ही सौ झंझट थे। महीनों की भागदौड़ के बाद पासपोर्ट बन गया वह भी एक ग्रामीण जमींदार की गारंटी पर।

आठ सौ रूपए था पानी के जहाज का किराया
वेद जी को ब्रिटेन का वीजा मिला, लेकिन उन दिनों पानी के जहाज का किराया ही आठ सौ ब्यालीस रूपये था। उस दौर में उन्होंने इतने पैसे कभी नहीं देखे थे। उन्होंने अपने एक मित्र से उसकी साइकिल एक माह के लिए उधार मांगी और उस पर चढ़ कर अपने सगे-संबंधियों से उधार मांगने चल पड़े। किसी से दस, किसी से दो रूपये तो किसी से पचास पैस भी उधार मिले। किसी तरह से यात्रा के पैसे एकत्र हुए तो लखनऊ जाकर पासपोर्ट पर मोहर लगवाई। तीन दिन बाद लखनऊ से मुंबई (तब बंबई) पहुंचे। उस समय जब वे पानी के जहाज में चढ़े तो उनके पास बनियान व अंडरवियर भी नहीं था। जाड़े में ठंड काटने के नाम पर उनके पास बिना आस्तीन वाली एकमात्र नेहरू जैकेट थी।

लंदन के मित्र ने दिलवाई नौकरी
लंदन पहुंचने पर बटुक जी को उनके एक मित्र नरायण स्वरूप शर्मा ने खाने का सामान बेचने वाली कंपनी में साढ़े छह रूपये सप्ताह पर नौकरी दिलवाई। लंदन में उन दिनों सब को कोट-पैंट व टाई पहनना अनिवार्य था। चाहे वह मजदूर हो या फिर मालिक। इस ड्रेस कोड के बिना कहीं कुछ भी संभव नहीं था। बटुक जी बताते हैं कि उनके पास कोट-पैंट व टाई का आभाव था, लेकिन उन दिनों एक सज्जन भारत लौट रहे थे। बटुक जी ने उनका कोट-पैंट और टाई उधार ले ली। इसके बाद कभी रेस्तरां में, कभी भारतीय दूतावास में और कभी रसोई घर में मजदूरी की, लेकिन इसी बीच अपनी पढ़ाई जारी रखी। लंदन विवि में शोध कार्य करने के बाद उन्होंने अमरीका के बर्कले विवि में हिन्दी विभाग में नौकरी मिली और वहां पर वेद प्रकाश बटुक ने हिन्दी साहित्य का नाम रोशन किया। उन्होंने वहां पर अमरीकी मूल के लोगों को हिन्दी सिखाई और हिन्दी साहित्य के प्रति अलख भी जगाई।

जाने का किराया आठ सौ रुपए और वापसी में लगे एक लाख
वेद प्रकाश जी का कहना था कि जिस समय वे विदेश गए थे उस समय उनके पास आठ सौ रूपये भी नहीं थे, लेकिन जब वापस आए तो दौलत की ऐसी कोई कमी नहीं थी। 2012 में वे वापस मेरठ लौट आए और यहां आकर हिन्दी साहित्य के लिए किताबें लिखने लगे। उनका कहना है कि विदेश में लोग नौकरी करने और धन कमाने जाते हैं, लेकिन मैं अपने देश वासियों से यही कहूंगा कि वे भारतीय भाषा हिन्दी का भी नाम पूरे विश्व में गर्व से ऊंचा करें।