
देश की पहली महिला टीचर 'सावित्री बाई फुले'
Women's Day: महिला सशक्तिकरण और शिक्षा के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान देने वाली सावित्रीबाई फुले (1831 - 1897) भारतीय समाज सुधारकों में अग्रणी रही हैं। वह भारत की पहली महिला शिक्षिका, समाज सुधारक और कवयित्री थीं, जिन्होंने महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए कड़ा संघर्ष किया। उनके प्रयासों से शिक्षा के माध्यम से सामाजिक और शैक्षणिक क्रांति की नींव पड़ी।
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव गांव में एक माली किसान परिवार में हुआ। मात्र 9 वर्ष की आयु में उनका विवाह 13 वर्षीय ज्योतिबा फुले से हुआ। उस समय बालिका शिक्षा पर प्रतिबंध था, लेकिन सावित्रीबाई की शिक्षा के प्रति रुचि को देखकर उनके पति ने उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया और घर पर ही शिक्षा दी। इसके बाद उन्होंने पुणे के एक संस्थान से औपचारिक शिक्षक प्रशिक्षण लिया।
1 जनवरी 1848 को सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने पुणे में लड़कियों के लिए भारत का पहला स्कूल खोला। यह उस समय सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध एक क्रांतिकारी कदम था। इस पहल का रूढ़िवादी समाज ने घोर विरोध किया। उन्हें अपमान सहना पड़ा, रास्ते में उन पर पत्थर फेंके गए और गालियां दी गईं, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। महिलाओं और दलित समुदाय को शिक्षित करने के अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने कठोर संघर्ष किया। धीरे-धीरे फुले दंपति ने पुणे और उसके आसपास के गांवों में 18 स्कूलों की स्थापना की।
सावित्रीबाई को काफी संघर्ष करना पड़ा था। जब वह पढ़ने स्कूल जाती थीं तो लोग उन्हें पत्थर, कूड़ा और कीचड़ फेंकते थे। वह अपने साथ एक जोड़ी कपड़ा साथ लेकर जाती थीं और स्कूल पहुंचकर गोबर और कीचड़ से गंदे हो गए कपड़ों को बदल लेती थीं। उन्होंने हिम्मत नहीं और और हर चुनौती का सामना किया। पढ़ने के बाद उन्होंने दूसरी लड़कियों और दलितों के लिए एजुकेशन पर काम करना किया।
फुले दंपति के इस क्रांतिकारी कार्य में फातिमा शेख ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह ज्योतिबा फुले के मित्र उस्मान शेख की बहन थीं, जिन्होंने उन्हें अपने घर में आश्रय दिया था। फातिमा शेख ने फुले दंपति द्वारा स्थापित स्कूलों में पढ़ाई की और बाद में वहीं अध्यापन कार्य भी किया।
सावित्रीबाई फुले न केवल शिक्षा बल्कि सामाजिक सुधारों में भी सक्रिय रहीं। उन्होंने बाल विवाह, सती प्रथा, जातिवाद और छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने आत्महत्या करने जा रही विधवा काशीबाई को अपने घर में आश्रय दिया और उनके बच्चे यशवंत को दत्तक पुत्र के रूप में स्वीकार कर उनका पालन-पोषण किया। बाद में यशवंत को डॉक्टर बनाया।
सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं के आर्थिक विकास के लिए ‘महिला सेवा मंडल’ की स्थापना की। उन्होंने महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया और उन्हें आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा था कि स्त्री केवल श्रम और देह ही नहीं बल्कि स्वतंत्र विचार रखने वाली पुरुष के समान इंसान है। उनके विचारों से बाबा साहब अंबेडकर भी प्रेरित हुए और उन्होंने फुले दंपति को अपना गुरु माना।
सावित्रीबाई फुले बुद्धिमती लेखिका और प्रतिभाशाली कवयित्री थीं। उनका कविता संग्रह ‘काव्यफुले’ 1854 में प्रकाशित हुआ। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज के शोषित वर्ग को शिक्षा का महत्व समझाया। उनकी प्रसिद्ध कविता के अनुसार:
"उठो बंधुओ, अति शुद्रो, जागृत हो, उठो।
परंपरा की गुलामी नष्ट करने के लिए उठो।
बंधुओ शिक्षा के लिए उठो।"
उन्होंने यह भी कहा था कि मंदिर का मतलब मानसिक गुलामी का रास्ता है और स्कूल का मतलब जीवन में प्रकाश का रास्ता।
1897 में प्लेग महामारी के दौरान सावित्रीबाई फुले संक्रमित लोगों की सेवा में लगी रहीं। इसी दौरान वह स्वयं भी प्लेग से संक्रमित हो गईं और 10 मार्च 1897 को 66 वर्ष की आयु में अपने पुत्र यशवंत राव के अस्पताल में अंतिम सांस लीं।
आज सावित्रीबाई फुले को भारतीय नारीवादी आंदोलन की प्रेरणा के रूप में जाना जाता है। उनकी 194वीं जयंती के अवसर पर समाज को उनके आदर्शों को अपनाने और महिलाओं की शिक्षा व सशक्तिकरण को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। नारी शिक्षा और सभी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने का संकल्प लेना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
Updated on:
07 Mar 2025 06:01 pm
Published on:
07 Mar 2025 03:45 pm
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