
दिल्ली हाईकोर्ट ने बढ़ाया 36 साल पहले अधिग्रहित की गई जमीनों का मुआवजा।
Delhi High Court: दिल्ली हाईकोर्ट ने 1989 में अधिग्रहित की गई जमीनों को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। अदालत ने उन सैकड़ों जमीन मालिकों को राहत दी है जिनकी जमीनें शहरी विकास और यमुना नदी के तटीकरण परियोजना के लिए सरकार ने अधिग्रहित कर ली थीं। हाईकोर्ट ने इन जमीन मालिकों के मुआवजे में भारी बढ़ोतरी करते हुए प्रति बीघा 89,600 रुपये से बढ़ाकर 2 लाख रुपये प्रति बीघा करने का आदेश दिया है।
यह फैसला किलोकरी, खिजराबाद, नंगली रजापुर और गढ़ी मेंडू गांवों के ग्रामीणों से जुड़ी 140 से अधिक अपीलों पर सुनवाई के बाद आया। जस्टिस तारा वितस्ता गंजू की एकल पीठ ने कहा कि सरकार को अनिवार्य अधिग्रहण के मामलों में समान स्थिति वाले सभी जमीन मालिकों को एक समान मुआवजा देना चाहिए। अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि चूंकि अधिग्रहण वर्ष 1989 में हुआ था, इसलिए सरकार को बढ़ा हुआ मुआवजा ब्याज सहित देना होगा।
प्रभावित ग्रामीणों ने अपनी याचिकाओं में कहा था कि 1989 में अधिग्रहण के समय सरकार ने प्रति बीघा मात्र 27,344 रुपये का मुआवजा तय किया था, जिसे बाद में बढ़ाकर 89,600 रुपये प्रति बीघा कर दिया गया। लेकिन यह रकम भी जमीन के वास्तविक मूल्य के मुकाबले बहुत कम थी, क्योंकि अधिग्रहित भूमि दिल्ली की प्रमुख कॉलोनियों और यमुना किनारे के विकसित क्षेत्रों के नजदीक स्थित थी।
याचिकाकर्ताओं का कहना था कि जब पास के अन्य क्षेत्रों में समान भूखंडों के लिए अधिक मुआवजा दिया गया, तो उनके साथ भेदभाव हुआ है। उन्होंने अदालत से अनुरोध किया कि सभी प्रभावितों को समान परिस्थितियों में समान मुआवजा मिले। दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि जब किसी व्यक्ति की जमीन उसकी इच्छा के विरुद्ध अधिग्रहित की जाती है, तो सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि उसे न्यायसंगत और समुचित मुआवजा दिया जाए। अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में समानता के सिद्धांत का पालन अनिवार्य है, ताकि किसी भी वर्ग के साथ भेदभाव न हो।
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि सरकार की ओर से “एकतरफा” अधिग्रहण के समय जमीन मालिकों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखे बिना कम मुआवजा तय करना अनुचित है। अदालत ने कहा कि यह न केवल संवैधानिक समानता के अधिकार का उल्लंघन है, बल्कि किसानों के आजीविका के अधिकार पर भी सीधा असर डालता है। अदालत ने दिल्ली सरकार को निर्देश दिया कि 1989 से अब तक के समय को ध्यान में रखते हुए बढ़ा हुआ मुआवजा ब्याज समेत अदा किया जाए। अदालत ने कहा कि इतने वर्षों तक किसानों को उनका उचित हक नहीं मिलना “विलंबित न्याय” का उदाहरण है, इसलिए ब्याज देना न्यायोचित है।
इस फैसले से चारों गांवों के सैकड़ों किसानों और जमीन मालिकों को राहत मिलेगी, जो तीन दशक से ज्यादा समय से अपने हक के लिए संघर्ष कर रहे थे। माना जा रहा है कि इस फैसले का असर दिल्ली और एनसीआर के उन अन्य मामलों पर भी पड़ेगा, जिनमें जमीन अधिग्रहण के बाद मुआवजे को लेकर विवाद चल रहे हैं। दिल्ली हाईकोर्ट का यह निर्णय न केवल प्रभावित किसानों के लिए राहत लेकर आया है, बल्कि यह सरकारों को यह भी याद दिलाता है कि विकास परियोजनाओं के नाम पर भूमि अधिग्रहण करते समय न्याय, समानता और पारदर्शिता के मूल सिद्धांतों का पालन आवश्यक है।
Published on:
06 Oct 2025 05:23 pm
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