
कार्पेट एरिया-वह एरिया जिस पर आप कार्पेट बिछा सकें। यानि की घर का असल एरिया जो आपको इस्तेमाल करने को मिलेगा। अमूमन घर बेचते समय सुपर एरिया के बारे में बताया जाता है जो कि गलत है।
बिल्ड अप एरिया-बिल्ड—अप एरिया वह होता है जिसमें कार्पेट एरिया के साथ ही दीवारों, दरवाजों का एरिया भी शामिल होता है। ये कार्पेट एरिया का 15-20 फीसदी तक हो सकता है।
सुपर एरिया-सुपर एरिया में कार्पेट एरिया और बिल्डअप एरिया के साथ ही काम्प्लेक्स के उस कॉमन एरिया को भी शामिल करके बताया जाता है जिसे सभी लोग मिलकर इस्तेमाल करेंगे। इस एरिया को सभी बायर्स के हिसाब से बराबर बांटकर बताया जाता है। ये केवल एक काल्पनिक एरिया होता है और कभी इसपर ध्यान नहीं देना चाहिए।
कॉमन एरिया- कॉमन एरिया बिल्डिंग या काम्प्लेक्स का वह एरिया होता है, जिसका बंटवारा नहीं किया जाता है। जैसे कि पार्किंग, लॉन, स्वीमिंग पूल, कम्यूनिटी सेंटर, कॉरिडोर, लॉबी, एलीवेटर आदि। इसका मेंटेनेंस भी सभी को मिलकर करना होता है।
कॉमन एरिया मेंटेनेंस-कॉमन एरिया के मेंटेनेंस के लिए जमा किए जाने वाले फंड को ये संज्ञा दी गई है। हर घर या फ्लैट से कुछ पैसे इसके लिए जमा किए जाते हैं, जो कि सोसाइटी की आरडब्ल्यूए या संबंधित मैनेजमेंट कंपनी को जाते हैं।
फ्लोर प्लान-ये आपके फ्लैट का नक्शा होता है। इसमें फ्लैट के रूम, बाथरूम, किचन, बालकोनी आदि की जानकारी होती है। इसकी मदद से आप कार्पेट एरिया और बिल्ड—अप एरिया का हिसाब लगा सकते हैं। ये बिल्डर एग्रीमेंट के समय देता है, अगर आपको नहीं मिला है तो मांगें।
ले आउट प्लान-ये पूरे प्रोजेक्ट का नक्शा होता है। इसमें प्रोजेक्ट के तहत बनने वाले टॉवर या बिल्डिंग या कॉमन सुविधाओं, क्लब बिल्डिंग के बारे में जानकारी होती हैं।
फ्लोर स्पेस इंडेक्स-बिल्डर एक प्लाट में कितना निर्माण या कितने एरिया में निर्माण कर सकता है, उसे फ्लोर स्पेस इंडेक्स कहते हैं। इसका निर्धारण संबंधित अथॉरिटी करती है। मान लें कि किसी बिल्डर को दस हजार वर्ग फुट का प्लाट दिया गया है और उस एरिया का एफएसआई 2.0 है तो वह उस एरिया में 20000 वर्गफुट का निर्माण कर सकता है। यह निर्माण हर टॉवर के हर फ्लोर के हर फ्लैट को शामिल करके मापा जाता है। आमतौर पर एफएसआई में कॉमन एरिया, स्टेयरकेस, लिफ्ट, किचन, बाथरूम आदि को शामिल नहीं किया जाता है। इन चीजों को बिल्डर मंजूर किए गए एफएसआई एरिया से अलग बना सकता है।
इनवेंट्री-बिल्डर या कंपनी के पास कितने फ्लैट बेचने के लिए तैयार है या किराए पर देने के लिए हैं, उसे इनवेंट्री कहते हैं। इसे साधारण भाषा में स्टॉक की तरह समझा जा सकता है कि, बिल्डर के पास कितना स्टॉक है।
बेसिक सेलिंग प्राइज-प्रति स्क्वेयर फुट की कीमत को बेसिक सेलिंग प्राइज कहा जाता है। शुरू में यह बताया जाता है और बाद में इसमें अतिरिक्त चार्ज जोड़ दिए जाते हैं। इस बारे में पहले ही क्लीयर बात कर लें।
बेसिक सेल प्राइस आॅफ अपार्टमेंट-अपार्टमेंट के बेसिक सेल प्राइज को निकालने के लिए आप बीएसपी को अपार्टमेंट के कुल स्क्वेयर फुट एरिया से गुना कर लें। मान लें कि बीएसपी 2500 है और अपार्टमेंट का एरिया 2000वर्ग फुट है तो 2500 गुना 2000 करना होगा। इसके अलावा अन्य चार्ज भी होते हैं, जो बायर को देने होंगे। उनको मिलाने के बाद ही फ्लैट की असली कीमत पता चलेगी।
बुकिंग फार्म-ये वो पहला फार्म होगा जो आपको भरना होगा लेकिन अकसर बिल्डर के मार्केटिंग टीम के लोग या ब्रोकर इसे भरते हैं। इसमें कई सारी ऐसी चीजे होती हैं जो वह नहीं चाहते कि आप पढ़ें। सलाह है कि इसे आप खुद पढ़ें और बाद में भरें।
अलॉटमेंट लेटर-बुकिंग अमाउंट देने के बाद बिल्डर अलॉटमेंट लेयर को एक कंर्फमेशन के रूप में आपको देता है। इसमें फ्लैट, टॉवर नंबर, बीएसपी, नक्शे आदि से जुड़ी जानकारी होती है।
बिल्डर बायर एग्रीमेंट-इसे फ्लैट बायर एग्रीमेंट भी कहते हैं। अलॉटमेंट लेटर के बाद बिल्डर बायर के साथ ये एग्रीमेंट साइन करता है। इसमें सौदे से जुड़ी तमाम शर्तें होती हैं। बुकिंग के समय बिल्डर ने जो ब्रोशर आपको दिखाया था वह इस एग्रीमेंट में नहीं होता है। बिल्डर बीबीए में कई सारी चीजें निकाल देता है और वह बीबीए में किए गए वादों के लिए ही बाध्य होता है न की ब्रोशर के वादों के लिए।
ट्राईपार्टी एग्रीमेंट-ये तीन पार्टियों, बिल्डर, बाॅयर और लोन देने वाले बैंक के बीच किया गया एग्रीमेंट होता है।
पॉवर आॅफ एटर्नी-इसे लेटर आॅफ एटर्नी भी कहते हैं। जब आप अस्थाई तौर पर अपनी संपत्ति का मालिकाना हक किसी अन्य को देते हैं ताकि वह उसका रखरखाव कर सके। ये एग्रीमेंट आप जब चाहें कैंसल कर सकते हैं।
गिफ्ट डीड-अगर आप अपने किसी पारिवारिक सदस्य को संपत्ति देना चाहते हैं लेकिन उसके लिए आप पैसे नहीं ले रहे हैं। यानि कि प्रॉपर्टी का सौदा किए बिना उसका मालिकाना हक किसी अन्य को दिया जा रहा है। उस वक्त गिफ्ट डीड तैयार की जाती है। गिफ्ट डीड में भी आपको स्टांप ड्यूटी देनी होगी।
सेल डीड-प्रॉपर्टी की खरीदफरोख्त में सेल डीड सबसे अहम डाक्युमेंट होता है। इसमें सेलर और बायर देानों के हस्ताक्षर होते हैं। प्रॉपर्टी का रजिस्ट्रेशन और स्टांप ड्यूटी का निर्धारण इसी के आधार पर होता है। इसमें संपत्ति की सारी जानकारी, नक्शा होता है।
पजेशन सर्टिफिकेट-पजेशन लेटर की प्रक्रिया पूरी होने के बाद बिल्डर आपको पजेशन सर्टिफिकेट देता है और साथ में फ्लैट की चाबियां भी।
कनवेयंस डीड-इस डीड के तहत बिल्डर जमीन का मालिकाना अधिकार सोसाइटी की कमेटी को देता है। इसलिए जरूरी है कि प्रोजेक्ट के सभी फ्लैट बिकने के बाद वहां रहने वाले लोग मिलकर एक रजिस्टर्ड सोसाइटी बनाएं और बिल्डर से कनवेयंस डीड की प्रक्रिया को पूरा करें। वरना जमीन का मालिकाना हक उसी के पास रहेगा और भविष्य में इससे परेशानियां पैदा हो सकती हैं।
आॅक्युपेंसी सर्टिफिकेट या कंप्लीशन सर्टिफिकेट-बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन का काम खत्म होने के बाद जब बिल्डिंग में तमाम सुविधाएं जैसे कि, बिजली, पानी, ड्रेनेज कनेक्शन, फायर फाइटिंग इक्युपमेंट आदि लगा दिए जाते हैं तब इलाके की अथॉरिटी मौका मुआयना करने के बाद बिल्डर को कंप्लीशन सर्टिफिकेट जारी करती है।
स्टांप डयूटी या रजिस्ट्री-प्रॉपर्टी की रजिस्ट्री के समय दिए जाने वाले टैक्स को स्टांप ड्यूटी भी कहा जाता है। ये हर राज्य में अलग—अलग हो सकता है। इसका निर्धारण इलाके के सर्किल रेट के हिसाब से होता है न की फ्लैट की कीमत के हिसाब से।
सर्किल रेट-यह इलाके की न्यूनतम कीमत होती है, जिसके आधार पर रजिस्ट्री की जाती है।
टाइटल डीड-कई राज्यों में रजिस्ट्री डाक्युमेंट को टाइटल डीड भी कहते हैं। यही संपत्ति पर आपके मालिकाना हक को साबित करती है।
कैपिटल गेन-आपके द्वारा खरीदी गई संपत्ति की बढ़ी हुई कीमत पर कैपिटल गेन का हिसाब लगाया जाता है। इसी के आधार पर टैक्स भी देय होता है।
लांग या शॉर्ट टर्म केपिटल गेन-अगर आप 36 माह से ज्यादा के लिए किसी संपत्ति में निवेश करते हैं, तो उसे लांग टर्म केपिटल गेन की श्रेणी में माना जाता है। इससे आपको टैक्स में बीस प्रतिशत और सेस में तीन प्रतिशत तक की छूट मिल सकती है। वहीं 36 महीने से कम के निवेश को शॉर्ट टर्म केपिटल गेन माना जाता है।
केपिटलाइजेशन रेट-किसी प्रॉपर्टी के रेट सालाना किस स्तर पर बढ़ेंगे इसका हिसाब प्रॉपर्टी में निवेश करने से पहले ही लगा लिया जाता है। इसी बढ़ते हुए या बढ़ने वाली वेल्यू को केपिटलाइजेशन रेट कहा जाता है।
Published on:
30 Jan 2016 02:03 pm
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