6 दिसंबर 2025,

शनिवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

धर्म ज्ञान: जानिए इस्लामी कैलेंडर के नए साल पर क्यों नहीं मनाई जाती है खुशी

10 मोहर्रम कहा जाता यौम-ए-आशूरा यौम-ए-आशूरा को रोजा रखते हैं मुसलमान 10 मोहर्रम को ही इमाम हुसैन को कर्बला में कर दिया गया था शहीद

3 min read
Google source verification
islamic-fatwa.jpg

नोएडा. दुनियाभर के अलग-अलग संसकृति और देश से जुड़े कैलेंडर के नव वर्ष को धूमधाम से मनाया जाता है, लेकिन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी यानी मुसलमानों के इस्लामी कैलेंडर के नए साल पर कहीं भी खुशी नहीं मनाई जाती है। दरअसल, इस्लाम एक सादगी पसंद मजहब है। इस्लाम धर्म में खुशी के मौके पर मौज-मस्ती से ज्यादा पूजा-अर्चना (इबादत) और सादगी को महत्व दिया जाता है। यही वजह है कि इसलाम धर्म में हर खुशी के मौके पर इबादत का प्रावधान है। जैसे रमजान माह में रोजे रखना और ईद के मौके पर नमाज पढ़ने जैसी इबादत शामिल है।

यह भी पढ़ें: मायावती का यह खास सिपहसालार कभी भी हो सकता है गिरफ्तार, जान से मारने और बलवा फैलाने का केस दर्ज

इस्लाम धर्म में साल के पहले महीने को ऐतिहासिक रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। इस्लाम धर्म में यौम-ए-आशूरा यानी 10वीं मोहर्रम की कई अहमीयत हैं। इसलामी इतिहास के मुताबिक इसी दिन हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम पैदा हुए। फिरऔन (मिस्र के जालिम शाशक) को इसी दिन दरिया-ए-नील में डूबोया गया और पैगम्बर मूसा को जीत मिली। पैगंबर हजरत सुलेमान अलैहिस्सलाम को जिन्नों और इंसानों पर हुकूमत इसी दिन अता हुई थी। 10वीं मोहर्रम यानी यौम-ए-आशूरा को इमाम हुसैन की शहादत से पहले खुद पैगम्बर मुहम्मद (स) और उनके शिष्य रोजा रखते थे। हदीस की किताब सहीह मुस्लिम की हदीस नंबर 2656 में आशूरा के बारे में जो जिक्र किया गया है, वह इस प्रकार है। हज़रात अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि०) ने फरमाया था कि जब रसूलुल्लाह मोहम्मद सल्लल्लहु अलैहिवसल्लम मक्के से मदिने में तशरीफ़ लाए तो यहूदियों को देखा कि आशुरे के दिन (10 मोहर्रम) का रोजा रख्ते हैं। उन्होंने लोगों से पूछा कि क्यों रोजा रखते हो तो यहूदियों ने कहा कि ये वो दिन है, जब अल्लाह तआला ने मूसा (अलैह०) और बनी इसराइल को फ़िरऔन यानी मिस्र के जालिम शासक पर जीत दी थी। इसलिए आज हम उनकी ताज़ीम के लिए रोजा रखेते हैं । इसपर नबी-ए-करीम मोहम्मद (स० अलैह०) ने कहा कि हम पैगम्बर मूसा (अलैह०) से तुम से ज्यादा करीब और मुहब्बत करते हैं। फिर मोहम्मद (स० अलैह०) ने मुसलमानों को इस दिन रोजा रखने का हुक्म दिया। वहीं, एक और हदीस में हज़रात अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि०) कहते हैं कि जब मुहम्मद (स० अलैह०) ने 10वीं मोहर्रम का रोज़ा रखा और लोगों को हुक्म दिया तो लोगों ने कहा कि या रसूलल्लाह (स० अलैह०) ये दिन तो ऐसा है कि इसकी ताज़ीम यहूदी और ईसाई करते हैं, तो मोहम्मद (स० अलैह०) ने फ़रमाया कि जब अगला साल आएगा तो हम 9 का भी रोज़ा रखेंगे। हालांकि, अगला साल आने से पहले ही मुहम्मद (स० अलैह०) की मौत हो गयी। इसलिए दुनियाभर के मुसलमान 9 और 10 मोहर्रम को दोनों दिन रोज़ा रखते हैं।

यह भी पढ़ें: पूर्व पीएम के बेटे ने देसी मीडिया और भाजपा की ऐसे खोली परतें कि VIDEO देखकर आ जाएगी हंसी

सुन्नी मुसलमान नहीं करते हैं मातम

इसी मोहर्रम महीने की 10 तारीख यानी योम-ए-आशूरा के दिन एक मुस्लिम शासक यजीद ने पैगम्बर हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन को शहीद कर दिया था, लिहाजा, इस दिन दुनियाभर के शिया मुसलमान मातम मनाते हैं। मोहर्रम के महीने के बारे में बताते हुए छपरौली स्तित नूर मस्जिद के इमान व खतीब जियाउद्दीन हुसैनी ने बताया कि इस महीने का महत्व इससे पहले से हैं। कर्बला के इतिहास को पढ़ने के बाद मालूम होता है कि मुहर्रम का महीना कुर्बानी, गमखारी और भाईचारगी का महीना है। क्योंकि हजरत इमाम हुसैन रजि. ने अपनी कुर्बानी देकर पुरी इंसानियत को यह पैगाम दिया कि अपने हक को माफ करने वाले बनो और दुसरों का हक देने वाले बनो। आज जितनी बुराई जन्म ले रही है, उसकी वजह यह है कि लोगों ने हजरत इमाम हुसैन रजि. के इस पैगाम को भुला दिया और इस दिन के नाम पर उनसे मोहब्बत में नये-नये रस्में शुरू की थी। इसका इसलामी इतिहास, कुरआन और हदीस में कहीं भी सबूत नहीं मिलता है।

यह भी पढ़ें: वाहन चालकों के लिए आई बड़ी खुशखबरी, अब किसी का नहीं कटेगा चालान !

मोहर्रम में इमाम हुसैन के नाम पर ढोल-तासे बजाना, जुलूस निकालना, इमामबाड़ा को सजाना, ताजिया बनाना, यह सारे काम इस्लाम के मुताबिक गुनाह है। इसका ताअल्लुक हजरत इमाम हुसैन की कुर्बानी और पैगाम से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रखता है। यानी ताजिए का इस्लाम धर्म से कोई सरोकार या संबंध नहीं है। भारतीय उपमहाद्वीय के बाहर दुनिया में कहीं और मुसलमानों में ताजिए का चलन नहीं है। यहीं वजह है कि सुन्नी मुसलमान इमाम हुसैन के बताए रास्ते पर तो चलते हैं, लेकिन मातम नहीं मनाते हैं। हालांकि, भारत में ताजिए की परंपरा सुन्नी मुसलमानों में भी पाई जाती है।