
विजयादशमी, भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण और प्रेरणादायी पर्व है। यह पर्व हर वर्ष आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है। शास्त्रों और पुराणों में इस दिन को अधर्म पर धर्म की, असत्य पर सत्य की और अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में वर्णित किया गया है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, यह वही दिन है जब भगवान श्रीराम ने रावण का वध किया था और मां दुर्गा ने महिषासुर जैसे दैत्य को पराजित कर धर्म की स्थापना की थी। इसलिए यह दिन केवल एक विजय का प्रतीक नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में नैतिकता, साहस, संयम और सद्गुणों की पुनर्स्थापना का पर्व है। विजयादशमी का उल्लेख अनेक पुराणों और धर्मग्रंथों में मिलता है। ‘मार्कण्डेय पुराण’ में मां दुर्गा की महिषासुर पर विजय को शक्ति की सर्वोच्चता का उदाहरण बताया गया है, वहीं ‘रामायण’ में यह दिन श्रीराम की मर्यादा और धर्म पर अडिग रहने की शिक्षा देता है। इस दिन को ‘शस्त्र-पूजन’ और ‘विजय तिलक’ जैसे अनुष्ठानों से भी जोड़ा गया है, जहां जीवन के विभिन्न साधनों को शुभ उद्देश्यों के लिए समर्पित करने की भावना निहित होती है। विजयादशमी पर्व हमें यह सिखाता है कि कितनी भी बड़ी चुनौती क्यों न हो, यदि हम धर्म और सच्चाई के मार्ग पर हैं तो अंतत: विजय हमारी ही होगी। अहंकार, अधर्म, छल और अत्याचार चाहे कितने भी शक्तिशाली क्यों न दिखें, उनका अंत निश्चित है। रावण अत्यंत बलशाली, विद्वान और समृद्ध था, परंतु उसका अहंकार और अधर्म अंतत: उसे विनाश का कारण बना। आज के समय में जब समाज अनेक तरह की चुनौतियों जैसे भ्रष्टाचार, हिंसा, असत्य, स्वार्थ और नैतिक पतन से जूझ रहा है, विजयादशमी की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। यह पर्व हमें आत्मविश्लेषण करने का अवसर देता है कि हमारे भीतर कौन-कौन से ‘रावण’ अब भी जीवित हैं- क्या वह क्रोध है, ईर्ष्या, लालच या फिर झूठ और द्वेष? विजयादशमी का वास्तविक उद्देश्य केवल रावण के पुतले का दहन नहीं है, बल्कि अपने भीतर के विकारों को भी समाप्त करना है। तकनीक और तरक्की के साथ-साथ यदि जीवन में नैतिकता और सत्य की भावना न हो तो वह विकास अधूरा है। केवल सफलता के पीछे न भागें, बल्कि सच्चाई, संयम और कर्तव्य के पथ पर चलकर सफलता को सार्थक बनाएं।
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