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भारत की बढ़ती शक्ति, पर स्थायी सदस्यता से वंचित

विनय कौड़ा, अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार

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दिन-ब-दिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भारत का नाम अब संयोग नहीं, बल्कि एक अपरिहार्य स्थिरता बन चुका है। अमरीकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप हों या वर्तमान वैश्विक मंचों के अन्य संचालक, भारत का उल्लेख उनकी वाणी में जितनी बार आता है, उतनी बार यह स्पष्ट होता है कि भारत अब कोई क्षेत्रीय शक्ति नहीं, बल्कि विश्व राजनीति का एक केंद्रीय पात्र बन चुका है। वह पात्र, जिसके विचार, निर्णय और नीतियां विश्व पटल को प्रभावित करती हैं।

ट्रंप जब भारत पर ‘उच्च टैरिफ’ की चर्चा करते हैं या रूस-यूक्रेन संघर्ष में भारत के रुख पर टिप्पणी करते हैं, तो दबे स्वर में वे दरअसल भारत की उस संप्रभुता और स्वतंत्र निर्णय-शक्ति को स्वीकार करते हैं, जो आज के भू-राजनीतिक जगत में बहुत कम देशों के पास है। जब चीन, जो बरसों से पाकिस्तान को भारत-विरोधी नीति का औजार बनाता रहा है और सीमा विवाद में भारत को उलझाए रखना अपना कर्तव्य समझता रहा है, वही चीन भारत के साथ मैत्री की कालीन बिछाने को उत्सुक दिख रहा है। यह भारत की बढ़ती वैश्विक हैसियत का नहीं, बल्कि उसकी अपरिहार्यता का घोष है।

परंतु प्रश्न वही है—जब वैश्विक मंचों पर सब भारत को सुन रहे हैं, तो निर्णय की कुर्सी पर अब तक मौन क्यों? संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, विश्व की सबसे ताक़तवर राजनीतिक संस्था है, जहां वास्तविक निर्णय लेने की शक्ति केवल पांच देशों में केंद्रित है। अमरीका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस के पास वह पांचजन्य सत्ता है, जो 1945 की युद्धोत्तर परिस्थितियों की उपज थी। उस वक्त न तो भारत स्वतंत्र था और न ही उसकी सामरिक और आर्थिक शक्ति का विश्व में कोई औपचारिक मूल्यांकन हुआ था।

परंतु आज भारत जनसंख्या के हिसाब से विश्व का सबसे बड़ा देश है। भारत की अर्थव्यवस्था ब्रिटेन को पीछे छोड़ चुकी है। वह देश, जो लोकतंत्र की वास्तविक प्रयोगशाला है, जो आतंकवाद के विरुद्ध अग्रिम पंक्ति में है और जिसकी सैन्य शक्ति किसी भी स्थायी सदस्य से कम नहीं। उस भारत को आज भी सुरक्षा परिषद के दरवाजे पर प्रतीक्षा करनी पड़ रही है। यह केवल त्रासद विडंबना नहीं है, यह इतिहास का गहरा व्यंग्य है।

1993 से आज तक सुरक्षा परिषद में सुधारों की प्रक्रिया चल रही है, लेकिन हर बार नतीजा वही ढाक के तीन पात। यूरोप के देश, जो मंच पर तो सुधार का मुखौटा पहनते हैं, लेकिन बंद कमरों में सुधार की हर संभावना को नेस्तनाबूद कर देते हैं। उनकी नीति स्पष्ट है—सत्ता साझा नहीं होगी। यह वही औपनिवेशिक मानसिकता है, जो गोरों को अब भी वैश्विक नेतृत्व का एकाधिकार सौंपे हुए है।

ऐसे में पिछले दिनों एक भाषण में सिंगापुर के प्रख्यात पूर्व राजनयिक किशोर महबूबानी ने सीधा, सहज और यथार्थवादी विचार दिया है—ब्रिटेन अपनी स्थायी सीट भारत को सौंप दे। एक दशक तक संयुक्त राष्ट्र में सिंगापुर के स्थायी प्रतिनिधि और 2001 में सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष रह चुके महबूबानी की गिनती दुनिया के सर्वोच्च भू-राजनीतिक विशेषज्ञों में होती है। उनके तर्क का पहला आधार है ऐतिहासिक नैतिकता। ब्रिटेन ने भारत को 200 वर्षों तक उपनिवेश बनाकर लूट-खसोट की। यदि वह उस ऐतिहासिक पाप के प्रायश्चित स्वरूप में यह सीट भारत को दे, तो यह सिर्फ़ एक प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि वास्तविक क्षतिपूर्ति होगी।

दूसरा तर्क है आर्थिक यथार्थ—भारत की अर्थव्यवस्था ब्रिटेन से न केवल बड़ी है, बल्कि भविष्य में चार गुना बड़ी होने जा रही है। ऐसे में ब्रिटेन का भारत की सीट पर बैठे रहना, मानो कोई भूतकाल का राजा आज के जनतंत्र में सिंहासन पर विराजमान हो।

तीसरा बिंदु है वैश्विक आवश्यकता—जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, युद्ध और शांति जैसे विषय आज पुराने यूरोपीय मॉडलों के नियंत्रण से बाहर हैं। इन समस्याओं का हल वे शक्तियां ही निकाल सकती हैं, जो न केवल सैन्य दृष्टि से, बल्कि सांस्कृतिक, जनसंख्या और जनमत के प्रतिनिधित्व में भी सशक्त हों। भारत इसी श्रेणी का सबसे प्रतिनिधि राष्ट्र है।

यूरोप आज केवल 17 प्रतिशत वैश्विक अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता है, परंतु सुरक्षा परिषद में 40 प्रतिशत सीटें उसके पास हैं। यह अनुपात न्याय का नहीं, बल्कि छल का द्योतक है। ब्रिटेन और फ्रांस आज वैश्विक निर्णयों में निरंतर प्रभावहीन होते जा रहे हैं, लेकिन फिर भी वे उस परिषद में बैठे हैं, जहां भारत जैसे राष्ट्र को बाहर रखा गया है।

अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस सार्वजनिक रूप से भारत का समर्थन तो करते हैं, लेकिन पर्दे के पीछे ऐसी शर्तें भी जोड़ते हैं, जिससे सुधार असंभव बन जाए। इसे कहते हैं राजनीतिक आडंबर—जहां मित्रता की मुस्कान के पीछे प्रतिस्पर्धा की तलवार छिपी होती है। परंपरागत रूप से चीन, भारत का विरोध करता रहा है। लेकिन महबूबानी का विश्लेषण है कि चीन को भी यह समझ में आने लगा है कि यदि सुरक्षा परिषद को वैश्विक प्रतिनिधित्व और प्रासंगिकता बनाए रखनी है, तो भारत जैसे देशों को अंदर लाना अपरिहार्य है। हालांकि चीन की वास्तविक नीयत को लेकर मतभेद की संभावना बनी रहेगी।

लेकिन प्रश्न यह नहीं है कि भारत को सुरक्षा परिषद में क्यों होना चाहिए। सवाल तो यह है कि भारत अब तक क्यों नहीं है? अगर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद शक्ति का मंच है, तो भारत की अनुपस्थिति उस मंच की प्रामाणिकता को खोखला करती है। यदि यह मंच न्याय व शांति की अभिव्यक्ति है, तो भारत को वंचित रखना अनैतिकता की पराकाष्ठा है।

महबूबानी का प्रस्ताव सिर्फ कूटनीतिक संकेत नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक संदेश है। यदि ब्रिटेन अपनी स्थायी सीट भारत को सौंपता है, तो यह न केवल एक भूतकाल से मुक्ति होगी, बल्कि संयुक्त राष्ट्र की लगातार कम हो रही साख का पुनर्निर्माण भी होगा। भारत की सुरक्षा परिषद में स्थायी उपस्थिति केवल एक राष्ट्र की आकांक्षा नहीं, बल्कि इस सदी के संतुलन की मांग है।