
फोटो: पत्रिका
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निद्र्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।। (गीता 2.45)
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। (गीता 7.4)
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।। (गीता 7.5)
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा।। (गीता 7.6)
सारांश यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों मिलकर सृष्टि को उत्पन्न करते हैं, संचालित करते हैं। प्रकृति ब्रह्म का स्वभाव है। अत: प्रकृति ब्रह्म ही है। स: त्री- वही त्रिगुणमयी प्रकृति (स्त्री) है। अग्नि भी बिना सोम के अस्तित्व में नहीं रह सकता, सोम (ऋत) भी बिना आधार के नहीं रहता। दोनों साथ रहते हैं। यही अद्र्धनारीश्वर है। हर पुरुष स्त्री है, हर स्त्री भी भीतर पुरुष ही है। बाहर में पुरुष भोक्ता दिखाई देता है, भीतर स्त्री भोक्ता है। संकल्पित होकर जीना पौरुष है।
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता- 'शक्ति’-किसकी? सर्वभूतेष- सभी भूतों की। नर की-मादा की-जड़ सृष्टि की भी। प्रत्येक पुरुष की। प्रत्येक प्राणी पुरुष है- प्रत्येक प्राणी स्त्री है। हर प्राणी स्वयं ही स्वयं की शक्ति भी है।
या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्ति-रूपेण संस्थिता- भ्रान्ति ही माया है- पुरुष स्वयं को स्त्री नहीं समझता, स्त्री स्वयं को पुरुष नहीं मानती। एकांगी दृष्टिकोण ही भ्रान्ति है। मैं पुरुष हूं- स्त्री को पुरुष नहीं मानता। स्त्री पुरुष को कुछ सीमा तक स्त्री मानती है, उसको भोग सकती है। मूल में यही भ्रान्ति है। विश्व ईश्वर की कृति है- ईश्वर ही अपने अंश रूप से विश्व बना है।
मौलिक अग्नि-यजुराग्नि-सत्याग्नि है- ब्रह्म है। ऋक्- साम ही पुर है। यजु: पुरुष है। इसी से यज्ञाग्नि का विकास होता है। स्वयंभू ब्रह्माग्नि, सूर्य देवाग्नि, पृथ्वी भूताग्नि बन जाता है। ब्रह्म ही मूल प्रकृति है, अत: प्राणाग्नि/प्राकृताग्नि कहलाती है। यज्ञाग्नि वैश्वानर अग्नि है। मौलिक अग्नि में ताप-दाह नहीं होता। वैश्वानर (यज्ञाग्नि) में ताप होता है।
चारों अग्नियों से चार प्रकार का पानी उत्पन्न होता है। पानी उत्पन्न करना अग्नि का स्वाभाविक धर्म है। ब्रह्माग्नि से अम्भ, देवाग्नि से मरीचि, भूताग्नि से 'मर’ नामक पानी पैदा होता है। वैश्वानर से श्रद्धा नामक पानी पैदा होता है। प्राणाग्नि के ताप से पसीने निकलते हैं। सिर- ब्रह्मरंध्र पर स्वयंभू की प्रतिष्ठा है। परिश्रम से इसके वाग् भाग पर आघात होता है, पानी (अंभ:) पैदा होता है।
सूर्य शुक्राग्नि है। प्रेम-शोक दोनों से अग्नि क्षुब्ध हो जाता है। चन्द्रमा मंथी (मंथन करने वाला) है। क्षुब्ध अग्नि से मन पिघलता है। इसका प्रधान स्थान चक्षु है। मन चान्द्र है। चन्द्रमा सोमरसमय है, अब् मूर्ति है। यदि सौर अग्नि का इस पर आघात होता है तो चान्द्रमन द्रुत होता है। प्रेम का उदे्रक होने से प्रेमरस कहते हैं। इसका पांच भागों में प्रवाह होता है—श्रद्धा, वात्सल्य, स्नेह, काम और रति। श्रद्धा, वात्सल्य तथा स्नेह तीनों में दोनों ओर चेतन अवस्था रहती है। जड़ वस्तु से प्रेम 'काम’ है। चारों की समष्टि रति है। रति के दो ही अधिकारी हैं—ईश्वर और स्त्री।
यजु: के वाक् भाग से जो तत्त्व उत्पन्न हुआ वह अग्नि की भांति ऋजु (सीधा-ऊपर गति करने वाला) न होकर व्याप्त हो गया- फैल गया। इसे 'आप’ कहा गया। इसी अप् तत्त्व में पांच बल (जाया-धारा-आप-जीवन-ऋत) पैदा होते हैं। आत्मा की रक्षा के कारण ऐसा होता है। इच्छा ही प्राण का उद्गम है। प्राण ही आप का कारण बनता है (इच्छा)। पानी उत्पन्न कर प्रजापति आपोमण्डल के गर्भ में प्रविष्ट हो जाता है-तत् स्रष्ट्वा तदेवानुप्रावशित्। इच्छा शक्ति से शुक्र तत्त्व पैदा होता है- पानी में प्रजनन शक्ति आती है। पानी से ही पृथ्वी बनती है, औषधि में शुक्र प्रवेश करता है। प्रजा उत्पन्न करता है। इसको जायाबल कहते हैं। शुक्ररूप यह पानी मातरिश्वा की प्रेरणा से अग्नि को अपने गर्भ में प्रतिष्ठित कर लेता है। अब यह अग्निधर्मा पानी प्रजनन धर्मा है। स्त्री स्वयं जाया है। सौम्या है। सोममय जायाबल ही स्त्री का उपादान कारण है। अग्नि पुरुष है। वही जायाबल से वेष्टित गर्भगत शोणित है। स्त्री का गर्भगत शोणित शुद्ध अग्नि है।
शुक्र सोमरूप जाया है। इसका उष्मा भाग पुरुष है। पुरुष भी जाया है। आत्मा सर्वप्रथम पुरुष शरीर में- शुक्र में, गर्भधारण करता है। प्राणी का यह प्रथम जन्म है। सर्वांग शरीर का शुक्र- पुरुषाकृति से युक्त होकर ही शोणित में आहुत होता है। प्राणी शुक्र द्वारा माता के गर्भाशय में प्रतिष्ठित होता है। उपादान कारण को ही शुक्र कहते हैं, अत: शुक्र व शोणित दोनों ही शुक्र हैं- जाया हैं।
पुरुष यदि स्वयं के पुरुष भाग को ही विकसित करता है, तो वह एकांगी होकर आक्रामक- उष्ण प्रकृति वाला हो जाएगा। उसका शरीर बलप्रधान होता जाएगा। उसके स्त्रैण गुण लुप्त होते चले जाएंगे। श्रद्धा-वात्सल्य-स्नेह-काम-रति ये पांचों ही भाग अल्पतम रह जाएंगे। यह भी चेतना नहीं रहेगी कि किसी स्त्री में पुरुष तत्त्व- पौरुष भी होता है। उसे पूर्णतया निर्बला- अबला मानकर आक्रामक हो उठेगा। पुरुष का अहंकार हावी ही रहेगा। ठीक इसके विपरीत यदि कोई स्त्री पौरुष भाव को विकसित करती जाए, तो ये सारे गुण-दोष उसमें भी दिखाई पड़ेंगे। उसमें भी स्त्री सापेक्ष गुणों का अभाव ही रहेगा। वह केवल शरीर मात्र से मादा होगी, स्त्री-सापेक्ष अन्य सौन्दर्य-माधुर्य-करुणा के गुण वहां अल्पतम होंगे। ऐसे में वह पुरुषों के बीच सहज रूप से रह सकती है। उसका अहंकार- त्रियाहठ- प्रतिशोध- ईष्र्या जैसे दोष प्रभावी रहेंगे। पौरुषेय स्वच्छन्दता की उसमें प्रधानता होने लगेगी।
पुरुष को संतुलन के लिए अपने स्त्रैण भाग का भी, पौरुष भाव के समान विकास करना चाहिए। सेवा-भक्ति रूप में प्रेम-माधुर्य का विकास निरन्तर अभ्यास के द्वारा बनाए रखना चाहिए। पत्नी के पौरुष भाग को भी विकास के लिए प्रेरित करना चाहिए। इसके परिणामस्वरूप दोनों का आत्मविश्वास पोषित होगा। परस्पर सौहार्द भाव बढ़ेगा। जिससे जीवन के प्रति पूर्णता का भाव विकसित होता जाएगा। जीवन में नया सवेरा होगा।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com
Updated on:
13 Sept 2025 08:23 am
Published on:
13 Sept 2025 08:17 am
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