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शरीर ही ब्रह्माण्ड : प्रत्येक कोशिका ब्रह्माण्ड

प्रत्येक प्राणी के साथ अनादिकाल से किए हुए कर्म का एक बहुत बड़ा संग्रह रहता है। काल के अनुसार परिपाक प्राप्त कर वे ही भिन्न-भिन्न शरीरों के आरम्भक होते हैं अर्थात् कर्म के रूप में आते-जाते हैं।

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Gulab Kothari

Aug 21, 2021

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- गुलाब कोठारी

हमारा जीवन कितनी मिथ्या दृष्टि पर टिका हुआ है- इसका अनुमान इसी बात से हो जाता है कि हमारा शरीर नश्वर है, किन्तु हम मानते ही नहीं। अधिकांश लोग तो जीते ही शरीर के लिए हैं। स्वयं (आत्मा) को जानते तक नहीं। यह भी नहीं जानते कि पिछले कर्मों के फल भोगने के लिए ही जीव को भिन्न-भिन्न शरीर प्राप्त होते हैं। उनको भोगने की अनिवार्यता पूरी उम्र बनी रहती है। इन कर्मों के अतिरिक्त जो कर्म अपनी इच्छा से हम करते हैं, उनका फल भविष्य में मिलेगा। फल क्या मिलेगा, कब मिलेगा, मिलेगा भी या नहीं मिलेगा, अज्ञात रहता है।

प्रत्येक व्यक्ति भीतर अकेला-आत्मरूप होता है। सारे सम्बन्ध कर्म रूप मिलते हैं। यहां तक कि माता-पिता के सन्तान से सम्बन्ध भी कर्मों पर आधारित ही होते हैं। सन्तान आत्मा रूप तो अमर है। माता-पिता उसे पैदा कर ही नहीं सकते। शरीर का निर्माण करते हैं। आपस के कर्म तो शरीरों के माध्यम से ही होते हैं, किन्तु कारण आत्मा होता है, जिसका आभास जीवन में होता ही नहीं। आत्मा का जो रूपान्तरण होना चाहिए, उसे अवसर ही नहीं मिल पाता। जैसा आता है, वैसा ही लौट जाता है। साथ में कुछ नए कर्मों के बन्धन लेकर नई योनि की ओर अग्रसर हो जाता है।

कर्म का स्वरूप कैसे तय होता है? शरीर स्वयं में ब्रह्माण्ड है। वही ढांचा, वही सब नियम कायदे। जिस प्रकार पंच महाभूतों से, अधिदैव और अध्यात्म से ब्रह्माण्ड बनता है, वही स्वरूप हमारे शरीर का है। भीतर के बड़े आकाश में भिन्न-भिन्न पिण्ड तो हैं ही, अनन्तानन्त कोशिकाएं भी हैं। इन्हीं सूक्ष्म आत्माओं से निर्मित हमारा शरीर है जो बाहर से ठोस दिखाई पड़ता है। भीतर कोशिकाओं का मधुमक्खियों के छत्ते की तरह निर्मित संघटक स्वरूप है। ये कोशिकाएं सभी स्वतंत्र आत्माएं होती हैं। इनका अपना आत्मा, हृदय (ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र) होता है। इनके मन-प्राण-वाक् की स्वयं की इच्छाएं (प्रारब्ध रूप) होती हैं। ये इच्छाएं इनके साथ जुड़ी हमारी धातुओं को प्रभावित करती रहती हैं। इनका अन्न हमारे शरीर से प्राप्त होता है, उसी अनुरूप इच्छाएं उठती हैं। हमारे खानपान, नशा आदि इनकी आदतें व लत बन जाती हैं। ये भी अपनी इच्छाओं को अभिव्यक्त करके हमारी इच्छाओं को दृढ़ करती जाती हैं। इनकी प्रारब्ध से जुड़ी इच्छाएं इनके कारण शरीर से निकलती हैं। सिद्धान्त के अनुसार इनका शरीर भी पूर्ण ब्रह्माण्ड का रूप ही है।

इनका आत्मा भी ब्रह्म-कर्म समन्वित है। हृदय में इनके भी कृष्ण रहते हैं। घोषणा है- ''ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुनतिष्ठति। 18/61''। तब क्या हमारा सम्पूर्ण शरीर ही कृष्ण तत्त्व से आच्छादित नहीं है? इस सम्पूर्ण प्रंपच में मेरा स्थान कहां है। यदि मेरा आत्मा सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है- जैसे दूध में घी- तब क्या मैं प्रत्येक कोशिका के शरीर में कृष्ण की तरह व्याप्त नहीं हूं? कृष्ण के विग्रह से सम्पूर्ण शरीर का निर्माण प्रत्यक्ष है। कोशिकाओं का हृदय, मेरे हृदय से सूत्रात्मा के माध्यम से जुड़ा रहता है। मेरा हृदय (केन्द्र-नाभि) भीतर के इस ब्रह्माण्ड के लिए अव्यय रूप अश्वत्थ वृक्ष ही है। इन कोशिकाओं में ज्ञान, इच्छा और कर्म का स्वरूप भी शरीर की ही भांति है। इच्छा भी प्रारब्ध से, ईश्वर की इच्छा से, प्रकृति से, माया से प्रभावित हो रही है। इसका तात्पर्य है कि कोशिकाएं सतोगुणी, रजोगुणी तथा तमोगुणी भी हैं। उनकी प्रकृति तो बदल सकती है, प्रारब्ध स्वतंत्र है। कही रक्तधारा में बहना पड़ रहा है तो कही किसी को अव्यय के निर्माण अथवा संचालन में जुटना पड़ रहा है। इनके अपने पूर्व कर्म भी हैं अत: इच्छाएं भी होगी। हमारा अन्न भी उनके मन का निर्माण कर रहा है, इसका प्रभाव भी होगा। शरीर की ऊपर की दो गुहाएं अमृत भाग से, अव्यय के आनन्द-विज्ञान-मन से अनुप्राणित है। ज्ञान भाग है। नीचे के दो भाग मन-प्राण-वाक् से जुड़े है जो कर्म भाग है।

जीव जो कुछ मानसिक या शारीरिक कर्म करता है वह ईश्वर की ही प्रेरणा से करता है। ईश्वर ही पूर्वकर्मानुसार किसी को शुभ कार्यों में और किसी को अशुभ कार्यो में लगाया करता है। तब यह प्रेरणारूप कर्म भी ईश्वर का ही हुआ। ईश्वर की प्रेरणा से किए गए कर्म स्वयं बंधक न होकर पूर्व के कर्म बन्धनों को खोलने वाले होते हैं। यदि ईश्वर प्रेरणा न करे तो मनुष्य आदि सभी प्राणियों के कर्म बन्धन के कारण बनेंगे और कर्म न करने से उनका विनाश अवश्यंभावी है।

कृष्ण कह रहे हैं, हे पार्थ! मेरा तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है। क्योंकि मुझे कुछ भी अप्राप्त नहीं है। जिसको प्राप्त करने के लिए मैं कर्म करूं फिर भी मैं कर्म में प्रवृत्त रहता हूं-

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।। गीता 3.22

सृष्टि का आधार मेरी एकोऽहं बहुस्याम रूप इच्छा ही है। जगत को उत्पन्न करना, उसका पालन करना और समय पर संहार करना यद्यपि मेरे कर्म हैं किन्तु इन कर्मों को करता हुआ भी मैं कर्मों में नहीं बंधता। क्योंकि मेरी फल की इच्छा ही नहीं है। पुन: यदि मैं अपने कर्म में प्रवृत्त न होऊं अर्थात् कर्म छोड़ बैठूं तो सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हुए कर्मों का परित्याग कर बैठेंगे। जिससे लोक में अराजकता व्याप्त हो जाएगी। यज्ञ एवं लोकसंग्रह ये दो ही कर्म के मुख्य प्रयोजन कहे गए हैं।

जीव अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में कर्मों के फलों का भोग करता है। जीवों के ये कर्म तीन प्रकार के होते हैं-संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण। अनादिकाल से जीवात्मा जो कर्म करता रहा और उन कर्मों को अभी अपना फल देने का अवसर नहीं मिला। वे संचित कर्म कहे जाते हैं। जो उनमें से अपना फल देने के लिए वर्तमान जन्म के कारण बनते हैं, वे प्रारब्ध कर्म कहे जाते हैं। इस जन्म में किए जाकर जो कर्म अपना संस्कार आत्मा में उत्पन्न करते हैं, वे क्रियमाण कर्म कहलाते हैं। वर्तमान शरीर जिनसे मिला, वे प्रारब्ध कर्म तो भस्म नहीं होते क्योंकि प्रारब्ध कर्मों का तो क्षय भोग से ही सम्भव है-प्रारब्धकर्मणां भोगादेव क्षय:। प्रत्येक प्राणी के साथ अनादिकाल से किए हुए कर्म का एक बहुत बड़ा संग्रह रहता है। काल के अनुसार परिपाक प्राप्त कर वे ही भिन्न-भिन्न शरीरों के आरम्भक होते हैं अर्थात् कर्म के रूप में आते-जाते हैं। ज्ञान उत्पन्न होने पर उनका बीजभाव नष्ट हो जाता है अर्थात् वे कभी प्रारब्ध कर्म के रूप में आगे जन्म न दिला सकेंगे। जन्म होने का मुख्य कारण अविद्या ही है। वह अविद्या जब ज्ञान से नष्ट हो गई तो फिर जन्म की बात ही नहीं रही। इसीलिए कर्मों का बीजभाव नष्ट होना आवश्यक है। कृष्ण कहे रहे हैं कि हे अर्जुन जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि ईंधनों को सर्वथा भस्म कर देती है ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को सर्वथा भस्म कर देती है-

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।। गीता 4.37

जीवन में कर्म क्रिया का पर्याय है। जिस पर क्रिया का प्रभाव हो उसे कर्म कहते है। यह भिन्न-भिन्न वस्तुओं पर भिन्न-भिन्न रूप में होता है। जैसे कुम्हार घड़े का निर्माण करता है यह घट का 'उत्पाद्य' कर्म है क्योंकि घड़ा पहले नहीं था, वह उत्पन्न किया जाता है। रंगरेज के द्वारा कपड़े रंगने का कार्य 'विकार्य' कहा जाता है क्योंकि इसमें वस्तु का स्वरूप परिवर्तन होता है। चावलों को पकाना 'संस्कार्य' कर्म कहा जाता है। इस कर्म से उसकी कठोरता हटाकर कोमलता लाई जाती है। इस कर्म में वस्तु के गुण का स्वरूप परिवर्तन मात्र किया जाता है। बालक का उपनयन आदि संस्कार करके उसमें अतिशय का आधान तथा आगन्तुक दोषों को हटाया जाता है। यह संस्कार जिसके किए जाते हैं वह 'संस्कार्य' कर्म कहलाता है। मनुष्य का गांव जाना 'प्राप्य' कर्म है। गांव की प्राप्ति ही मनुष्य की क्रिया का फल है।

मनुष्य तभी तक जीवित माना जाता है जब तक उसमें कर्म करने की शक्ति रहती है। जब उसमें कर्म करने का सामथ्र्य चला जाता है तब मनुष्य मृत समझा जाता है। शरीर में क्रियात्मकता का रहना ही मनुष्य के जीवित रहने का प्रमाण है। अपनी जीवित अवस्था में प्राणी क्षणभर के लिए भी बिना कर्म के नहीं रह सकता-''न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्''। जीवित रहने की अवस्था में श्वास-प्रश्वास रूप कर्म होता है अत: यदि मनुष्य चाहे तो भी इस कर्म से विराम सम्भव नहीं है।

क्रमश:

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