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तकनीक का ट्रिगर: बढ़ रहा किशोर मन का असंतुलन

डॉ. सुरभि गोयल, चिकित्सा विशेषज्ञ

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एक समय था जब गुस्सा भावनात्मक प्रतिक्रिया मात्र माना जाता था, लेकिन आज यह सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए संकट बनता जा रहा है विशेष रूप से किशोरों व युवाओं के बीच। तेजी से बढ़ रही इंटरनेट की आदत और स्मार्टफोन की लत ने जहां एक ओर सूचनाओं और जुड़ाव के नए रास्ते खोले हैं, वहीं दूसरी ओर यह गुस्सा, चिड़चिड़ापन और आक्रामकता जैसे लक्षणों का भी कारण बन रहा है।

अमेरिका की ग्लोबल माइंड प्रोजेक्ट रिपोर्ट के अनुसार, जो बच्चे 12 वर्ष से पहले स्मार्टफोन के सम्पर्क में आए, उनमें 38% में अचानक गुस्से या आक्रामकता, 49% में सामाजिक अलगाव व अकेलापन और 17% में भ्रम जैसे लक्षण पाए गए।

बेंगलूरु स्थित निम्हांस की एक रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि कई किशोरों को इंटरनेट स्लो होने पर अत्यधिक गुस्सा आता है – कुछ माता-पिता पर चिल्लाते हैं, सामान फेंकते हैं, दोस्तों से लड़ते हैं या स्वयं को नुकसान पहुंचाने तक का व्यवहार करते हैं। मनोवैज्ञानिक इसे ‘डिजिटल विड्रॉल सिंड्रोम’ कहते हैं, जिसमें दिमाग डोपामिन (खुशी देने वाला केमिकल) की आदत डाल लेता है। जब आप कुछ आनंददायक करते हैं, तो मस्तिष्क डोपामिन छोड़ता है, जिससे अच्छा महसूस होता है और आप उस गतिविधि को दोहराना चाहते हैं। उसमें थोड़ी रुकावट से ही असहजता व क्रोध उत्पन्न होता है।

फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म युवाओं में तुलनात्मक सोच को बढ़ावा देते हैं। हर किसी की जिंदगी ‘परफेक्ट’ लगती है, सिवाय अपनी। ऐसे में खुद को कमतर महसूस करना, डिप्रेशन और अंततः गुस्से में प्रतिक्रिया देना आम हो जाता है।

यह गुस्सा केवल ऑनलाइन नहीं रुकता – यह घरों में, स्कूलों में और सड़कों पर उतर आता है। गुस्सा स्वाभाविक भाव है, लेकिन जब यह बेकाबू और ट्रिगर-बेस्ड हो जाए तो खतरनाक बन जाता है। आज का युवा हर सूचना पर तत्काल प्रतिक्रिया करता है, गहराई से सोचने की आदत कम हो गई है। साथ ही, ऑनलाइन ‘इको चैम्बर्स’ केवल उन्हीं विचारों को दोहराते हैं, जो व्यक्ति पहले से मानता है, जिससे असहमत विचारों के प्रति असहिष्णुता और गुस्सा पैदा होता है।

सोशल मीडिया और गेमिंग बच्चों को ऐसा मंच देते हैं जहां वे खुद को ‘महसूस’ कर सकते हैं – भले ही वह अनुभव हिंसात्मक या नकारात्मक ही क्यों न हो। उन्हें ‘वेलिडेशन’ की तलाश रहती है, जो सिर्फ अपने दोस्तों या सोशल मीडिया के ‘लाइक्स’ में मिलता है। विशेषकर 6–12 वर्ष की उम्र में अगर बच्चों को नियमित रूप से माता-पिता से बातचीत, निर्देश और इमोशनल सपोर्ट नहीं मिलता तो व्यवहारिक परेशानियां पनपने लगती हैं। आज के युवा का गुस्सा केवल इंटरनेट का प्रभाव नहीं है, बल्कि बचपन में हुए छोटे-छोटे सम्पर्कविहीन क्षणों का जमा हुआ दबाव भी है। जब घर एक भावनात्मक ढांचा बनने के बजाय वाई-फाई जोन बन जाए तो उस घर में पल रहे बच्चे अपने गुस्से की भाषा स्क्रीन से सीखने लगते हैं।

इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए हमें केवल तकनीकी उपायों की नहीं, बल्कि सामाजिक और भावनात्मक शिक्षा की जरूरत है। स्कूलों में डिजिटल साक्षरता और इमोशनल इंटेलिजेंस पर कार्यक्रम होने चाहिए। माता-पिता को प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि वे बच्चों के साथ खुलकर संवाद करें। स्क्रीन टाइम तो सीमित होना ही चाहिए, साथ ही बच्चों को आउटडोर गेम्स में भाग लेने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

यदि हमें अपने किशोरों व युवाओं को बेहतर मानसिक भविष्य देना है, तो हमें आज ही उनके डिजिटल व्यवहार पर ध्यान देना होगा। इंटरनेट उन्हें जोड़ सकता है, लेकिन वही उन्हें तोड़ भी सकता है। आज की आवश्यकता है तकनीक के साथ विवेकपूर्ण संतुलन की – जहां जुड़ाव हो, लेकिन नियंत्रण के साथ।