अब इसे ब्रांड मोदी कहें, भाजपा का धुरंधर प्रचार अभियान, सटीक रणनीति, कार्यकर्ताओं का उत्साह मानें या फिर कांग्रेस का कमजोर नेतृत्व और हताश कार्यकर्ता। चौधरी लगातार दूसरी बार और पटेल को तीसरी बार संसद में जाने का मौका मिला है। यदि ‘मोदी करिश्मा’ नहीं होता तो क्या ये दोनों सीटें दोनों प्रत्याशी क्या अपनी व्यक्तिगत हैसियत से जीत सकते थे, ये भी बड़ा सवाल है। क्योंकि जिस तरह से इन्हें टिकट देने से पहले पार्टी के भीतर ही विवाद की स्थिति बनी, इनका कई नेताओं और कार्यकर्ताओं ने जोरदार विरोध किया था। लेकिन बाद में सभी सिर्फ इस बात पर एकजुट हो गए कि इस बार फिर से मोदी को ही मौका दिया जाना चाहिए। पाली संसदीय क्षेत्र से पीपी चौधरी पर नौ लाख 149 तथा जालोर-सिरोही से देवजी पटेल पर सात लाख 72 हजार 833 लोगों ने भरोसा जताया। अब बारी है इन जीते हुए प्रतिनिधियों की जनप्रतिनिधि का धर्म निभाने की।
चुनाव जीतने में मोदी मैजिक काम कर सकता है, अन्ततोगत्वा दोनों विजेता सांसदों को अपने विकास का रोडमैप जनता के सामने रखना ही होगा। इस नाते इनके सामने चुनौतियां कम नहीं हैं। कई ऐसे मुद्दे हैं जिनका सालों से समाधान नहीं हुआ है। पाली का प्रदूषण और बंद पड़ी कपड़ा फैक्ट्रियां इसका जीता जागता प्रमाण है। ये ही यहां की पहचान और इस औद्योगिक नगरी की रीढ़ भी है। जवाई यहां की जीवनधारा है। जवाई पुनर्भरण के नाम पर कई चुनाव लड़े गए लेकिन, ये अब तक अधूरा ही है। पिछली राज्य सरकार ने जाते-जाते फोरी घोषणा तो कर दी लेकिन समाधान हकीकत से दूर दिखता है। जयपुर-दिल्ली के लिए यहां से एकमात्र ट्रेन है। इसी तरह जालोर-सिरोही में नर्मदा का पानी पिलाना हो या आहोर रेलवे क्रॉसिंग पर आरओबी बनाना ज्वलंत समस्या के रूप में आमजन के सामने अब भी विद्यमान है।
यदि छह महीने पहले की बात करे तो पूरे प्रदेश में सरकार बदलने का जनमत आया। लेकिन, तब भी पाली व जालोर-सिरोही की जनता ने भाजपा के पक्ष में वोट दिया। कांग्रेस बड़ी उम्मीद के साथ मैदान में उतरी कि लोकसभा चुनाव में वह बाजी पलटेगी, लेकिन कांग्रेस की जीत की आकांक्षा पूरी नहीं हो सकी। जो भी प्रत्याशी जीतता है उसकी जीत में कार्यकर्ताओं का जोश और जीवटता भी महत्वपूर्ण होती है। लोकतंत्र के इस महासमर में कांग्रेस कार्यकर्ताओं में वह आत्मबल और आत्मविश्वास कहीं नजर नजर ही नहीं आया। अधिकतर कार्यकर्ता तो मानो पहले ही हार मान चुके थे। इसके लिए ईमानदारी से कांग्रेस संगठन में आत्मविवेचना हो कि उसकी साख क्यों गिर रही है और भरोसा क्यों टूट रहा है। कांग्रेस को छह महीने पहले जिस तरह से जनता ने नकारा था, उससे तो उसे अधिक चौकन्ना हो जाना चाहिए था। पर अफसोस, कांग्रेस अपने ढुलमुल रवैये पर ही कायम रही और नतीजा सबके सामने हैं।