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गंभीर आरोप में घिरे मंत्रियों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट भी कड़ा कानून लाने की दे चुका है सलाह, पढ़ें किस मामले में क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट ने मनोज नरूला बनाम भारत संघ मामले में 2014 में फैसला सुनाया कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को मंत्री नियुक्त करने पर कोई कानूनी रोक नहीं है, लेकिन सुझाव दिया कि प्रधानमंत्री गंभीर आपराधिक मामलों या भ्रष्टाचार के आरोप वाले व्यक्तियों को चुनने से बचें

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भारत

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Mukul Kumar

Aug 21, 2025

सुप्रीम कोर्ट। (फोटो- IANS)

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बुधवार को लोकसभा में संविधान (130वां संशोधन) विधेयक पेश किया। जिसमें प्रावधान है कि अगर पीएम, सीएम और मंत्री गंभीर आरोप में गिरफ्तार होते हैं।

अगर वह लगातार 30 दिनों तक हिरासत में रहते हैं या उनपर ऐसा आरोप लगता है, जिसमें उन्हें पांच या उससे अधिक सालों तक जेल हो सकती है। तो ऐसी स्थिति में उन्हें 31 वें दिन पद से हटा दिया जाएगा। अगर वह खुद पद नहीं छोड़ते हैं तो नए प्रस्तावित कानून के मुताबिक, वह अपने आप पद से मुक्त हो जाएंगे।

अब इस बिल को लेकर बवाल मचा है। विपक्ष लगातार इस बिल का विरोध कर रहा है। हालांकि, यह पहली बार नहीं है, जब इस तरह का कड़ा कानून लाने की चर्चा हुई है। सुप्रीम कोर्ट और विधि आयोग पहले भी संसद को इस तरह का कानून लाने की सलाह दे चुके हैं।

2014 में सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

सबसे पहले साल 2014 में मनोज नरूला बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को मंत्री नियुक्त करने पर कोई रोक नहीं है।

इसके साथ कोर्ट ने सुझाव दिया कि प्रधानमंत्री को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को न चुनने पर विचार करना चाहिए, खासकर यदि उन पर गंभीर आपराधिक मामले या भ्रष्टाचार के आरोप तय किए गए हों।

2018 में सुप्रीम कोर्ट ने फिर दिया था सुझाव

इसके बाद, सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने साल 2018 में एक जनहित याचिका पर दिए गए अपने फैसले में इन सिफारिशों पर चर्चा की थी। पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन ने जनहित याचिका दायर कर गंभीर अपराधों के लिए आरोप तय होने की स्थिति में मंत्रियों को अयोग्यता करार करने की मांग की थी।

तब अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा था कि वह संसद द्वारा निर्धारित प्रावधानों से परे अयोग्यता के लिए कोई नया आधार नहीं बना सकती है। कोर्ट ने कहा कि अयोग्यता पर कानून बनाने का अधिकार पूरी तरह से संसद के पास है।

उस दौरान, अदालत ने सिफारिश की कि संसद को एक सख्त कानून बनाना चाहिए, जिससे राजनीतिक दलों के लिए यह अनिवार्य हो जाए कि वे उन लोगों की सदस्यता रद्द करें जिन पर गंभीर अपराधों के लिए आरोप तय किए गए हैं। इसके साथ, उन्हें चुनाव लड़ने के लिए टिकट भी न दी जाए।

इन मामलों को लेकर भी कोर्ट ने कहा- हमारे पास अधिकार नहीं

अगर हाल की बात करें तो सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर मामलों का सामना कर रहे दो मामलों में भी टिप्पणियां कीं। एक गंभीर मामला तमिलनाडु के मंत्री वी सेंथिल बालाजी के खिलाफ दर्ज किया गया था। दूसरा गंभीर मामला दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के खिलाफ दर्ज था।

बालाजी को प्रवर्तन निदेशालय ने 2023 में कैश-फॉर-जॉब घोटाले में गिरफ्तार किया था। वे 14 महीने तक हिरासत में रहे। राज्यपाल और विपक्ष के भारी दबाव के बाद उन्हें मंत्री पद से हटा दिया गया।

सितंबर 2024 में, सुप्रीम कोर्ट ने बालाजी को जमानत दे दी क्योंकि मुकदमे में कई साल लगने की संभावना थी। रिहा होने के कुछ ही दिनों के भीतर, बालाजी को कैबिनेट मंत्री के रूप में बहाल कर दिया गया।

ईडी ने सुप्रीम कोर्ट से उनकी जमानत रद्द करने का आग्रह किया, यह तर्क देते हुए कि अपने अधिकार के कारण, वह अपने खिलाफ मामले को प्रभावित कर सकते हैं।

इसके बाद, अप्रैल 2025 में, अदालत ने बालाजी को दो ऑप्शन दिए। कहा गया कि या तो वह मंत्री पद पर रह सकते हैं या आजाद घूम सकते हैं। या तो वह इस्तीफा दे सकते थे या अपनी जमानत रद्द होने का जोखिम उठा सकते थे। कुछ दिनों बाद, बालाजी ने पद छोड़ दिया।

वहीं, केजरीवाल को भी काफी दिनों तक हिरासत में रहने के बाद कथित शराब नीति धन शोधन मामले में जमानत मिल गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें आधिकारिक दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने, सरकारी कार्यालयों में प्रवेश करने, गवाहों से बातचीत करने और मामले से जुड़ी फाइलों तक पहुंचने से रोक दिया था।

इसके साथ, अदालत ने खुलकर कहा था कि किसी निर्वाचित नेता को पद छोड़ने के लिए बाध्य करने का उसके पास कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है। उन्हें इस्तीफा देना चाहिए या नहीं, यह केजरीवाल के विवेक पर छोड़ दिया गया है।

विधि आयोग ने भी दिया था प्रस्ताव

साल 1999 में अपनी 170वीं रिपोर्ट में, भारतीय विधि आयोग ने भी प्रस्ताव दिया था कि जिन मंत्रियों के खिलाफ ऐसे आरोप लगते हैं, जिनमें 5 वर्ष तक जेल हो सकती है, उन्हें पद से मुक्त कर देना चाहिए।

इस प्रस्ताव को भारतीय चुनाव आयोग ने 2004 में और विधि आयोग ने 2014 में अपनी 244वीं रिपोर्ट में फिर से दोहराया था। विधि आयोग की 2014 की रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि किसी विधायक को तब अयोग्य ठहराया जा सकता है, जब उसके विरुद्ध कोर्ट ने आरोप तय कर दिए हों। हालांकि, इस सिफारिश को तब गंभीरता से नहीं लिया गया।