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इन विवादों की वजह से 2019 में Modi Government 2.0 की होती रही किरकिरी

साल 2019 में मोदी सरकार ने कई अहम फैसले लिए जो विवादों के लपेटे में भी आए। हालांकि सरकार ने इनमें से कई विवादों का समाधान निकाल लिया है, लेकिन ये विवाद पूरी तरह से समाप्‍त नहीं हुए हैं।  

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1. धारा 370 विवाद

जम्मू कश्मीर ( Jammu-Kashmir ) से धारा 370 ( Aticle-370 ) को समाप्‍त करने को लेकर मोदी सरकार ने 5 अगस्‍त, 2019 को ऐतिहासिक फैसला लिया था। राज्यसभा में अमित शाह ने बयान में कहा कि जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 के सभी खंड लागू नहीं होंगे। बता दें कि यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर को विशेष अधिकार देता है। इसके मुताबिक, भारतीय संसद जम्मू-कश्मीर के मामले में सिर्फ तीन क्षेत्रों-रक्षा, विदेश मामले और संचार के लिए कानून बना सकती है। इसके अलावा किसी कानून को लागू करवाने के लिए केंद्र सरकार को राज्य सरकार की मंजूरी चाहिए होती है।
इस अनुच्छेद को हटाने का विरोध करने वालों का सोचना है कि इससे बाकी भारत के लोगों को भी जम्मू-कश्मीर में जमीन खरीदने का अधिकार मिल जाएगा। साथ ही नौकरी और अन्य सरकारी मदद के भी वे हकदार हो जाएंगे। इससे उनकी जनसंख्या में बदलाव हो जाएगा।

वहीं समर्थन में बोलने वालों का कहना है कि इससे एक देश और एक कानून को लागू करना संभव हो पाएगा। सुप्रीम कोर्ट में 2014 से इस पर केस चल रहा है। मामले में दाखिल याचिका में तर्क दिया गया था कि ये भारत की भावना के खिलाफ और अलगाववाद को बढ़ावा देने वाले प्रावधान हैं। जबकि कश्मीर भी भारत का अभिन्न अंग है। ये अनुच्छेद एक देश के नागरिकों के बीच ही भेद पैदा करते हैं। फिलहाल इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में समक्ष याचिका विचाराधीन है।

2. नागरिकता संशोधन बिल 2019

नागरिकता संशोधन बिल 2019 ( Citizenship Amendment Bill 2019 ) लोकसभा और राज्यसभा में बहुमत से पारित हो गया। 12 दिसंबर को राष्‍ट्रपति रामनाथ कोविंद ( President Ramnath Kovind ) की ओर से स्‍वीकृत मिलने के बाद से यह बिल कानून बन गया है। नए कानून का असर यह होगा कि बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए हिंदुओं के साथ ही सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों के लिए बगैर वैध दस्तावेजों के भी भारतीय नागरिकता हासिल करने का रास्ता साफ हो जाएगा। जबकि मुस्लिमों को इस नियम के दायरे से बाहर रखा गया है।

नागरिकता संशोधन बिल का पूर्वोत्तर के राज्यों के साथ कई राजनीतिक दल भी विरोध कर रहे हैं। पूर्वोत्तर के लोग इस बिल को राज्यों की सांस्कृतिक, भाषाई और पारंपरिक विरासत से खिलवाड़ बता रहे हैं। पूर्वोत्‍तर के सभी राज्‍यों में इस बिल को लेकर धरना, प्रदर्शन, आगजनी, हिंसा जारी है। दूसरी तरफ सरकार इसे लागू करने के मुद्दे पर अडिग है।

3. CBI बनाम CBI

मोदी सरकार ( Modi Government ) द्वारा सीबीआई ( CBI Vs CBI ) कामकाम मे दखलंदाजी को लेकर यह विवाद 2018 से ही चल रहा था कि लेकिन इस विवाद का अंत 8 जनवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में तत्‍कालीन डायरेक्‍टर आलोक वर्मा को स्‍थानांतरित कर नए सीबीआई निदेशक की नियुक्ति का निर्देश दिया था। इस आदेश के बाद आलोक वर्मा ने अपने पद से इस्‍तीफा दे दिया था।

सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा ने पूर्व जॉइंट डायरेक्टर राकेश अस्थाना के साथ विवाद के चलते शक्तियां छीने जाने और छुट्टी पर भेजने के खिलाफ याचिका दायर की थी। अस्थाना और वर्मा के बीच करप्शन को लेकर छिड़ी जंग के सार्वजनिक होने के बाद केंद्र की मोदी सरकार ने दोनों अधिकारियों को छुट्टी पर भेज दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 6 दिसंबर, 2018 को मामले की सुनवाई के बाद इस मामले में फैसला सुरक्षित रख लिया था। सुप्रीम कोर्ट में आलोक वर्मा के अलावा एनजीओ कॉमन कॉज की ओर से अर्जी दाखिल कर मामले की एसआईटी जांच की मांग की थी। साथ ही सरकार द्वारा छुट्टी पर भेजे जाने के फैसले को चुनौती दी गई है।

4. RBI बनाम केंद्र सरकार

सरकारी संस्‍थाना की स्‍वायत्तता दूसरा अहम मसला केंद्रीय बैंक RBI का है जिसमें सरकार अपने उन अधिकारों का इस्तेमाल करना चाहती थी जिनका RBI के 8 दशक के इतिहास में अब तक नहीं किया जा सका। RBI एक्ट, 1934 की धारा 7 केंद्र सरकार को यह विशेषाधिकार देती है कि वह केंद्रीय बैंक के असहमत होने की स्थिति में सार्वजनिक हित को देखते हुए गवर्नर को निर्देशित कर सकती है और सरकार के निर्देशन को RBI मानने से इनकार नहीं कर सकता है। इस विवाद में अंत अभी तक नहीं हुआ है लेकिन आरबीआई ने केंद्र सरकार को बैंकों के रिकैपिटलाइजेशन के लिए 1.45 लाख करोड़ रुपए जारी किया। उसे बाद विवाद ठंडा पड़ गया।

5. चुनावी बॉण्ड

चुनावी बॉण्ड ( electoral bond ) राजनीतिक दलों को चंदा देने की एक नई व्यवस्था के रूप में हमारे सामने आया है। सरकार का दावा है कि इस नई व्यवस्था से राजनीतिक दलों को गलत तरीके से की जाने वाली फंडिंग के प्रचलन पर रोक लगेगी और उन दलों को ही चंदा दिया जा सकेगा जो इसके योग्य हों। लिहाज़ा, सरकार ने चुनावी बॉण्ड के लिए कई नियम बनाए हैं। ऐसा माना जा रहा है कि चुनावी बॉण्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक पारदर्शी टूल है। क्योंकि, दाता इस बॉण्ड को डिज़िटल या चेक के ज़रिये भुगतान करके ही खरीद सकता है।

लिहाज़ा, अगर कोई व्यक्ति किसी दल को चंदा देता है तो उसके खाते में चंदे की रकम साफ तौर पर देखी जा सकेगी। यही कारण है कि चंदा लेने वाले और चंदा देने वाले दोनों के ही द्वारा बैंक खाते के इस्तेमाल किए जाने की वज़ह से इस दिशा में पारदर्शिता आने की उम्मीद जताई जा रही है। लेकिन विपक्ष इस बात से सहमत नहीं है और उसका आरोप है कि मोदी सरकार इस बॉण्‍ड का उपयोग राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए कर रही है। इससे केवल बीजेपी को लाभ हो रहा है। इतना ही हीं बॉण्‍ड के जरिए अन्‍य राजनीतिक दलों को कमजोर करने का टूल बन गया है।

7. डेटा निगरानी एवं गोपनीयता

हम डिजिटल युग ( digital era ) में जी रहे हैं। इसलिए डेटा का ज़िंदगी में दख़ल, शॉपिंग आदि से आगे बढ़कर हमारी सोच और रोजमर्रा की जिंदगी यहां तक कि हमारी पसंद-नापसंद तक पहुंच गया है। हमारी सामाजिक और पारिवारिक गतिविधियां बैंकिंग, लेन-देन और तमाम आधिकारिक कामकाज डेटा के मोहताज हो गए हैं।

दूसरी तरफ इन्हीं तकनीकों का इस्तेमाल लोगों में भय पैदा करने, साइबर अपराध संबंधी गतिविधियां मसलन- साइबर अथवा डिजिटल वार, साइबर हैकिंग, साइबर आतंकवाद और आपत्तिजनक सामग्रियों को वर्चुअल दुनिया में प्रेषित करने जैसी गतिविधियों में किया जा रहा है। इन चुनौतियों की वजह से डेटा निगरानी का मुद्दा भी विवाद का विषय बन गया है।

डिजिटल युग के इस दौर में वाक् एवं अभिव्यक्ति की मौलिक आजादी का मुद्दा भी इससे जुड़ा है। इस मामले में फेसबुक डेटा लीक व लोगों की निजता में दखल देने का मामला भी सामने आया था। इसमें इजरायली कंपनी का सहयोग लेने का कांग्रेस ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया था। काफी जद्दोजदह के बाद सरकार ने इस बात को माना है कि सोशल मीडिया के जरिए व्‍यक्ति की निजता का उल्‍लंघन हुआ है।