मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक भारत-म्यांमार को जोड़नेवाली स्टिलवेल रोड पर रहने वाले डमरू उपाध्याय की मोमो की दुकान है। वो भाजपा विधायक भास्कर शर्मा और अपनी तस्वीर के पास बैठे गोरखाली डमरू कहते हैं कि गोरखा लोगों को सिर्फ मरने के लिए तैयार किया जाता है। आओ देश के लिए मर जाओ। डमरू के परिवार के सदस्यों नाम भी एनआरसी ड्राफ्ट में नहीं है। उनका कहना है कि 22 सालों से संघ और भाजपा से जुड़े हैं। अब हमें यही सिला मिलेगा कि असम छोड़कर जाना पड़ेगा। इसी तरह बिहार के मूल निवासी चंद्र प्रकाश जायसवाल के मुताबिक़ लोगों में डर है कि अगर अंतिम एनआरसी में भी नाम नहीं आया तो क्या होगा? जायसवाल के पिता और चाचा की जायदाद साझी थी। इसलिए श्याम सुंदर जायसवाल के पास कोई दस्तावेजे नहीं है। जो थे वो 1950 के असम भूकंप की भेंट चढ़ गए जब सादिया और पास के इलाके की आबादी का बड़ा हिस्सा नदी में समा गया था। जायसवाल का परिवार तीन पीढ़ी पहले असम आया था, लेकिन अब उनका सवाल एक ही है असम से निकाले गए तो जाएंगे कहां?
असम कभी मुगल साम्राज्य का भी हिस्सा नहीं रहा। यह ब्रितानी शासनकाल में 1826 में आया, जिसके बाद यहां चाय की खेती शुरू हुई और झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से बड़े पैमाने पर आदिवासी यहां लाए गए। इनमें से अधिकांश का नाम एनआरसी में नहीं है। इन आदिवासियों में से अधिकांश के पास वो दस्तावेज नहीं है जो आवेदन के लिए जरूरी हैं। न इनके पास उन्हें जुटाने की समझ या आर्थिक सामर्थ्य है और न ही किसी तरह का संगठनात्मक सहयोग।बहुतों ने तो एनआरसी के लिए दरख्वास्त ही नहीं दिया। साफ है कि ऐसे आदिवासियों के नाम एनआरसी में नहीं हैं। इसी तरह से बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे सूबों से ग्रो मोर फूड के नाम पर खेतिहर मजदूर भी ब्रितानियों के दौर में ही लाए गए थे। बहुत सारे लोग वहां से भी असम आये जो पहले पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है।