
झोपड़ीनुमा कुटिया में गुजारने पड़ते हैं 4 दिन (फोटो सोर्स- पत्रिका)
राजनांदगांव @ मोहन कुलदीप। Chhattisgarh News: देश-दुनिया तेजी से आगे बढ़ रही है। तकनीक में नवाचार का मसला हो या फिर हेल्थ सेक्टर में जटिल से जटिल बीमारी का इलाज, सब कुछ संभव होने लगा है पर आदिवासी बहुल क्षेत्र में रूढि़वादी परंपराएं इस कदर हावी है कि विशेषकर महिलाएं इसका दंश झेल रही हैं। दो साल पहले अस्तित्व में आए आदिवासी बहुल मोहला-मानपुर-अंबागढ़ चौकी जिले के गांवों में आज भी मासिक धर्म आने पर महिलाओं को घर के बाहर बनी झोपड़ीनुमा कुटिया में तीन से चार दिन गुजारने पड़ते हैं।
एक तरह से पीरियड आने पर महिलाओं को झोपड़ी में क्वारंटाइन रहना पड़ता है। यह झोपड़ी बदबूदार व असुरक्षित हैं। यहां बिजली, बिस्तर तक की सुविधा नहीं रहती। जीव-जंतुओं के खतरे के बीच महिलाओं को मासिक धर्म तक यहां रहना पड़ता हैै।
विभिन्न सामाजिक संगठनों ने इस रूढि़वादी परंपरा को खत्म करने का प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाए। प्रशासन की ओर से जागरूक करने का प्रयास भी किया गया है पर चार दिन की चांदनी की तरह भूल गए। यही वजह है कि मासिक धर्म को लेकर इस क्षेत्र के ग्रामीणों में अजीब सी मानसिकता घर बैठ गई है। इस क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों का कहना है कि मानसिकता में बदलाव लाने के लिए प्रशासन को यहां विशेष अभियान चलाने की जरूरत है।
मानपुर ब्लॉक के अंतर्गत आने वाले मदनवाड़ा, हुरले, हुरेली, रेतेगांव, सीतागांव, औंधी के अंदरूनी गांवों में घर के बाद झोपड़ीनुमा कुटिया नजर आते हैं। ग्रामीणों ने बताया कि पूर्वजों के जमाने से यह परंपरा चली आ रही है। दरअसल सालों पहले मासिक धर्म आने पर सुरक्षा के लिए कोई इंतजाम नहीं होते थे। इससे परिवार में संक्रमण फैलने की आशंका से छूआछूत मानते हुए महिलाओं को घर के बाहर कुटिया में रहने छोड़ दिया जाता था।
पाताल भैरवी मंदिर समिति के अध्यक्ष राजेश मारू व कमलेश सिमनकर ने बताया कि आदिवासियों को समझाने का प्रयास किया गया किंतु ये अपनी परंपरा को छोडऩा नहीं चाहते हैं। महिलाओं को फ्री में सेनेटरी नेपकिन भी बांटे ताकि कम से कम इन लोगों को संक्रमित होने से बचाया जा सके।
तत्कालीन कलेक्टर भीम सिंह को पूरे मामले की जानकारी देकर प्रशासनिक स्तर पर सुधार करने महिलाओं व युवतियों की मदद करने के लिए पहल करवाई, जिसमें कलेक्टर द्वारा महिला बाल विकास विभाग को यह जिम्मेदारी दी गई थी कि विभाग लगातार इन क्षेत्रों में जाकर मॉनिटरिंग करे और फ्री में इन महिलाओं व युवतियों को सेनेटरी नेपकिन दें पर कुछ दिन बाद इसे भूला दिया गया।
यह परंपरा बहुत पुरानी है। महिलाओं को रिस्क उठाते हुए झोपड़ी में रहना पड़ता है। इसमें बदलाव लाने प्रशासन को पहल करनी होगी। - अंगद सलामे, शिक्षक व सामाजिक कार्यकर्ता मानपुर
क्षेत्र के कुछ गांव में यह परंपरा खत्म हुई है। प्रयास कर रहे हैं कि मानसिकता में बदलाव आए। मितानिनों के माध्यम से सेनेटरी नेपकिन उपलब्ध कराते हैं।- सीएच मिश्रा, महिला एवं बाल विकास अधिकारी, एमएमएसी
Updated on:
02 Jun 2025 09:30 am
Published on:
02 Jun 2025 07:23 am
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