
देवबंद. पवित्र माह रमजानुल मुबारक की इस्लाम धर्म में खास अहमियत है। रमजान का रोजा इस्लाम धर्म का एक अहम फर्ज है। दारुल उलूम वक़्फ़ के उस्ताद मौलाना नसीम अख्तर शाह कैसर ने बताया कि मुकद्दस महीने रमजान का रोजा हर मुसलमान बालिग मर्द और औरत (जिसमें रोजा रखने की ताकत हो) पर फर्ज है। उन्होंने बताया कि रोजे की शुरुआत दुनिया पहले आदमी और इस्लाम धर्म के पहले पैगम्बर हजरत आदम अले. के जमाने से ही हो गई थी। उन्होंने कहा कि किताबों से पता चलता है कि हजरत आदम के दौर में ‘अयामे-बीज’ यानी हर महीने की तेरहवी, चौदहवी, पंद्रहवी तारीख के रोजे फर्ज थे।
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उन्होंने बताया कि यहूद और नसारा (ईसाई) धर्म के लोग भी रोजे रखते थे। यूनानियों के यहां भी रोजे का वजूद मिलता है। हिंदू और बुद्ध धर्म में भी व्रत (रोजा) धर्म का एक भाग के रूप में प्रचलित है। उन्होंने बताया कि पारसियों के यहां भी रोजे को बेहतरीन इबादत समझा गया है, जिससे साबित होता है कि दुनिया के तमाम धर्मों में रोजे की फजीलत और अहमियत पाई जाती है। यानी हजरत आदम अले. से लेकर मुहम्मद सल्ल. तक हर नबी और उनके मानने वालों के बीच रोजे का वजूद किसी न किसी शक्ल में
मिलता है, जिससे यह बात साफ हो जाती है कि रोजा एक ऐसी इबादत है, जो इस सृष्टि की रचना करने वाले ईश्वर (अल्लाह) को बेहद पसंद है।
पैगम्बर मोहम्मद सल्ल. की हदीस है, जिसमें आप ने फरमाया कि जिसने रमजान के रोजे महज अल्लाह के लिए समझ कर रखे तो उसके सब छोटे गुनाह बख्श दिये जाएंगे। आप सल्ल. ने एक ओर जगह फरमाया है कि रोजेदार के मुंह की बू अल्लाह के नजदीक मुश्क की खुशबू से भी ज्यादा प्यारी है। अल्लाह तआला का इरशाद है कि ‘रोजे का बदला मैं खुद देता हूं’ यानी रोजे का बदला देने में फरिश्ते भी जरिया नहीं बनते हैं। इससे ज्यादा रोजेदार के लिए और क्या खुशी की बात हो सकती है कि वह इसका बदला स्वयं अपने मालिक के मुबारक हाथों से पाएंगे। लिहाजा, मुसलमानों को लॉकडाउन का पालन करते हुए घरों के भीतर रहकर रोजे रखने के साथ ही इबादत करनी चाहिए और अल्लाह को राजी करते हुए देश और दुनिया में अमन चैन की दुआए करनी चाहिए।
Published on:
05 May 2020 01:10 pm
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