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MP Chunav: जिनकी कभी बोलती थी देश-प्रदेश में तूती, आज वो बैठकों तक ही रह गए सीमित

सियासत: समय के साथ खत्म हो गया प्रभाव

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सतना। राजनीति में कोई किसी का नहीं होता। सभी अपने फायदे के लिए दावं-पेच लगाते रहते हैं। कब कौन एकाएक प्रभावी भूमिका में आ जाए या हाशिए पर चला जाए? कुछ निश्चित नहीं होता। जो कभी थे सिरमौर आज उनको बैठक तक में नहीं पूछा जाता है। जिले में भी कई ऐसे नेता हैं जिनकी कभी तूती बोलती थी। पार्टी, संगठन व जनता के बीच प्रभाकारी भूमिका में थे।

पर, समय के साथ इन नेताओं का प्रभाव कम पड़ गया। अब स्थिति यह है कि वे बैठक तक सिमटकर रह गए। कई तो उम्र का हवाला देकर घर से भी बाहर नहीं निकलते हैं। विधानसभा चुनाव में उनकी उपयोगिता पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं।

भाजपा के दिग्गज
1- पुष्पेंद्र सिंह: जिला अध्यक्ष रहे हैं। अच्छे वक्ता की पहचान रही। जब नागेंद्र सिंह गृहमंत्री थे तो प्रदेशभर में सक्रिय रहे। अब पार्टी की बैठक तक सिमटे हैं। रामपुर से निर्दलीय चुनाव लड़े थे। उसके बाद स्थिति कमजोर हुई।

2-मोतीलाल तिवारी:मैहर में भाजपा की टिकट पर विधायक बने थे। प्रभावकारी वक्ता रहे और ब्राह्मण नेता के रूप में पहचान रही। नारायण त्रिपाठी के भाजपा में आने के बाद स्थिति कमजोर हुई। साथ ही मैहर में कई ब्राह्मण नेता नए आ गए हैं।

3-प्रभाकर सिंह:रामपुर से भाजपा के विधायक रहे। पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता के रूप में पहचान रही। हर्ष सिंह के भाजपा में आने के बाद प्रभाव कमजोर हुआ।

4-शिवा मिश्रा: अमरपाटन से महिला अधिवक्ता हैं। रामहित गुप्ता ने अमरपाटन क्षेत्र में इन्हें आगे बढ़ाया था। प्रभावकारी भूमिका में रहीं। रामहित राजनीति में कमजोर हुए, तो इनकी भी सक्रियता खत्म हो गई।

5-रमेश पांडेय:मैहर मंदिर घराने से संबंध है। भाजपा की टिकट से मैहर में चुनाव भी लड़े। लेकिन, सफलता नहीं मिली। इनके बेटे धीरज पांडेय भी नपा चुनाव लड़े। वे भी असफल रहे। सक्रिय हैं, लेकिन वर्तमान परिदृश्य में बैठक तक सक्रिय हैं।

6-उदय प्रताप सिंह: नागौद नपा अध्यक्ष रहे हैं। एक बार विधायकी की टिकट मिली थी, लेकिन कट गई। उसके बाद से फिर पार्टी ने मौका नहीं दिया। बैठकों तक सक्रिय हैं।

7-रामदास मिश्रा:विंध्य विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष रहे। संगठन में महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। चित्रकूट से तीन बार चुनाव लड़े। लेकिन सफल नहीं हुए। उम्र के कारण सक्रियता पर असर पड़ा। फिलहाल बैठकों में भाग लेते हैं।

8-मांगेराम गुप्ता: मप्र लघु उद्योग निगम के अध्यक्ष रहे। 1998 में भाजपा के टिकट पर सतना से चुनाव लड़े। वर्तमान विधायक शंकरलाल तिवारी के निर्दलीय चुनाव लडऩे से हार का सामना करना पड़ा। उसके बाद खुद ही राजनीति से दूरी हो गए। सक्रियता न के बराबर है।

कांग्रेस के दिग्गज
1-तोषण सिंह: रामपुर से विधायक रहे। अर्जुन सिंह के करीबी माने जाते रहे हैं। १९९६ में लोस चुनाव का टिकट मिली, हार गए थे। उसके बाद फिर कभी टिकट नहीं मिली। रामपुर से हमेशा टिकट के दावेदार माने जाते रहे पर पार्टी ने मौका नहीं दिया।

2-सईद अहमद: गुलशेर अहमद के उत्तराधिकारी के रूप में राजनीति में आए, पूर्व मंत्री हैं। लगातार दो बार विधायक का चुनाव हार गए। उसके बाद पार्टी ने मौका नहीं दिया। अब पार्टी की बैठक में सक्रिय दिखते हैं।

3-केपी शर्मा:मूल रूप से अधिवक्ता हैं। अर्जुन सिंह ने रामचंद्र वाजपेयी के विकल्प के रूप में चित्रकूट से मौका दिया था। लेकिन, हार गए। इसके बाद सतना से महापौर का चुनाव लड़े थे, सफलता नहीं मिली। पार्टी में सक्रिय नहीं रहते हैं।

4-केपीएस तिवारी: 1991-95 के दौर में अर्जुन सिंह के कार्यालय के केयर टेकर रहे, उनके करीबी माने जाते रहे। रामपुर बाघेलान से टिकट भी मिली थी। जीत नहीं सके थे। टिकट की दावेदारी रही है, लेकिन पुन: नहीं मिली। अब बैठक तक सक्रिय हैं।

5-डॉ हेमंत पारेख: सतना की पहली महिला विधायक कांताबेन पारेख के उत्तराधिकारी रहे। कांग्रेस ने जिला अध्यक्ष भी बनाया था। बाद में राजनीतिक समीकरण में फिट नहीं बैठे। समय के साथ पार्टी से दूरी होती चली गई। बहुत कम बैठकों में दिखते हैं। वे डॉक्टर प्रोफेशन में ज्यादा सक्रिय हैं।

6-अफसर यार खान:मूल रूप से कांग्रेस कार्यकर्ता हैं। बड़े पद पर नहीं रहे, पार्टी में उपयोगिता हमेशा रही। विद्याचरण शुक्ल के करीबी रहे हैं। 90 के दशक में जब शुक्ल सतना आए थे, तो इनके घर ही प्रेस कॉफ्रेंस हुई थी और उमाचरण गुप्ता व धीरेंद्र सिंह धीरू कांग्रेस में शामिल हुए थे। अब ज्यादा सक्रिय नहीं दिखते।

7-डॉ. रज्जन वाजपेयी: चित्रकूट के पूर्व विधायक स्व. रामचंद्र वाजपेयी के बेटे हैं। उत्तराधिकारी के रूप में कांग्रेस में सक्रिय रहे, टिकट की दावेदारी की। लेकिन, पार्टी ने भरोसा नहीं जताया। एक बार बसपा की टिकट पर चुनाव लड़े थे, लेकिन हार गए। अब डॉक्टर प्रोफेशन में ही सक्रिय हैं।

8-गिरिश शाह:गुजराती समाज के बड़े नाम रहे। विंध्य चेंबर अध्यक्ष भी रहे। अर्जुन सिंह के करीबी माने जाते रहे, कांताबेन के बाद इनके नाम को विधायक टिकट के लिए प्रस्तावित किया जाता रहा। एक बार पार्षद का चुनाव लड़ा और हार गए। उसके बाद कांग्रेस की राजनीति में कमजोर पड़ गए।