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काले पानी की सजा भी नहीं डिगा सकी, सूचना नहीं मिलने के कारण परिवार ने समझ लिया था मृत, 1946 में जीवित लौटे

दे दी हमें आजादी: काले पानी की सजा समाज से अलग करने और मानसिक रूप से तोड़ने के लिए दी जाती थी। यह सजा बोदूराम के जज्बे को कम नहीं कर सकी। जेल से लौटने के बाद भी उनका वही जुझारू और राष्ट्रप्रेम से भरा स्वभाव बरकरार रहा।

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बोदूराम लोमरोड़, डाबड़ा, डीडवाना-कुचामन (फोटो: पत्रिका)

Freedom Fighter Boduram Lomrod: डीडवाना-कुचामन जिले के डाबड़ा गांव के स्वतंत्रता सैनानी बोदूराम लोमरोड़ पुत्र पन्नाराम ने देश की आजादी के लिए जो योगदान दिया, वह गर्व से याद किया जाता है।

साल 1940-41 के आसपास जब ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ अपने चरम पर था, तब बोदूराम को जोधपुर महाराजा की ओर से सेना में भेजा गया था। वहां उन्होंने अंग्रेज अफसरों के सामने सिर झुकाने की बजाय डटकर मुकाबला किया। अंग्रेज सरकार ने उन्हें अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ काले पानी की सजा सुनाई।

करीब पांच साल तक पोर्ट ब्लेयर की सेलुलर जेल में अमानवीय यातनाएं सहने के बाद भी बोदूराम का हौंसला डिगा नहीं। कोई सूचना नहीं मिलने के कारण उनके परिजन उन्हें मृत मान चुके थे। लेकिन 1946 में जब वे जीवित गांव लौटे, तो डाबड़ा में आश्चर्य और खुशी की लहर दौड़ गई। पूरा गांव उन्हें देखने और सुनने के लिए एकत्रित हो गया। उनके साथ बड़ी घटना भी जुड़ी है। 13 मार्च, 1947 को डाबड़ा गांव में किसानों ने अत्याचारों के खिलाफ शांतिपूर्ण सभा की। तब किसानों पर हमला हो गया। हमले में बोदूराम का हाथ तलवार के वार से कट गया।

पुस्तकालय कक्ष का इंतजार

नागौर के पूर्व जिला कलक्टर समित शर्मा ने डाबड़ा के राजकीय मनोहरी देवी उच्च माध्यमिक विद्यालय में बोदूराम की तस्वीर पुस्तकालय कक्ष में लगाने की पहल की। तस्वीर तो लग गई, लेकिन परिजन के अनुसार पुस्तकालय कक्ष अभी तक स्वीकृत नहीं हुआ।

"मुझे गर्व है कि मैं उनका बेटा हूं। उन्होंने अंग्रेजों की यातनाएं झेली, पर आज़ादी के विचार से एक पल को भी नहीं डिगे।''

  • ताराचंद, पुत्र

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