यहां से आ रहे किसान
बालाजी का नाडा, धर्मशाला निवासी मनोज भास्कर के अनुसार सब्जियों की खेती करने वाले अधिकांश उत्तरप्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब सहित कई राज्यों से आते हैं। ये किसान जिला मुयालय या कृषि उपज मंडी के आस-पास के क्षेत्रों में कम दरों पर खेत को एक दो साल के लिए लीज पर ले लेते हैं। जहां ये भूमि की उर्वरता की परवाह किए बिना ही जमकर रसायनों से ऑफ सीजन में मंडप खेती के जरिए मिर्च, टमाटर, लौकी, खीरा और पालक जैसी नकदी सब्जियां उगाते हैं। वहीं कोई नहीं आ सके इसके लिए खेत के चारों तरफ अस्थाई दीवार बना दी गई है। जहां से इनकी फसलें स्थानीय मंडियों के साथ-साथ जयपुर, दिल्ली और अन्य महानगरों तक पहुंचती है। इस तरह के खेती मॉडल से शुरू में उत्पादन भले ही बढ़ता है, लेकिन लंबी अवधि में यह मिट्टी की उर्वरता को नष्ट कर देता है। जैविक तत्वों की कमी और केमिकल्स की अधिकता से भूमि बंजर होने लगती है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि इन सब्जियों की गुणवत्ता की जांच का कोई ठोस प्रबंध नहीं है। स्वास्थ्य विभाग की ओर से मंडी या बाजार में बिकने वाली कच्ची सब्जियों की आज तक जांच नहीं करवाई गई है। जबकि विभाग दूध, पनीर, मिष्ठानों और मसालों की ही जांच करता है।
हर साल 1250 टन की बढोतरी
कृषि आदान विक्रेताओं से जुटाई जानकारी के अनुसार जिले में पिछले डेढ दशक में हर साल उर्वरकों की खपत में 1250 टन की बढ़ोतरी हुई है। 90 के दशक में एक साल में उर्वरक की खपत जिले में करीब 15 हजार टन की थी वही खपत अब बढ़कर करीब तीस हजार मीट्रिक टन तक पहुंच गई है। इसी तरह डीएपी की खपत बढ़ी है। यूरिया व कीटनाशकों का इस्तेमाल इतना अधिक हो रहा है कि कई किसान अधिक से अधिक कमाई करने के चक्कर में शाम को फसल में दवा का इस्तेमाल करता है। कई लालची किसान सब्जी में इंजेक्शन तक लगाते हैं। मृदा जांच लैब की रिपोर्ट के अनुसार जिले में खेती की जमीन का पावर ऑफ हाइड्रो (पीएच) 8 से बढ़कर 9.5 तक पहुंच गया है। जबकि अच्छी जमीन का पीएच 7 से 8 के बीच होना चाहिए।