70 से अधिक धर्मध्वज होते हैं शामिल
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद लगे कफ्र्यू के दौरान भी प्रशासन से अनुमति लेकर चार लोग इस परिक्रमा में शामिल हुए थे, जबकि हमेशा शामिल होने वाले 70 से ज्यादा धर्मध्वजों की जगह कोरोनाकाल में मात्र 7 ध्वजों के साथ उदयगिरी परिक्रमा की परंपरा का निवर्हन किया गया था। हर हाल में अपनी विरासत और संस्कृति को सहेजे रखने की इसी जिद के कारण विदिशा को परंपराओं की नगरी भी कहा जाता है। हर साल यहां अक्षय नवमी पर 21 किमी की उदयगिरी परिक्रमा मंदिरों के ध्वजों के साथ पूजा पाठ करते हुए की जाती है।
चौपड़ा से ध्वज पूजा के साथ शुरू होती है परिक्रमा
अक्षय नवमी पर रामलीला समिति के प्रधान संचालक के चौपड़ा स्थित निवास से सुबह ध्वजों की पूजा और गाजे बाजे के साथ यह परिक्रमा शुरू होती है, जो रामघाट, कालिदास बांध होते हुए उदयगिरी पहुंचती है। नृसिंह शिला पर पूजा के साथ ही कवि सम्मेलन होता है, फिर वन भोज और फिर भैरव मंदिर सहित विभिन्न देवस्थानों, गणेशपुरा, शेषाशायी विष्णु, चरणतीर्थ होते हुए रामलीला परिसर पहुंचती है जहां से पूजा के बाद परिक्रमा का समापन शाम को बड़े बाजार स्थित गणेश मंदिर पर होता है।
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परिक्रमा को साहित्य से भी जोड़ा
रामलीला समिति के प्रधान संचालक पं. विश्वनाथ शास्त्री ने 1890 में अपने शिष्यों और कुछ धर्मनिष्ठ लोगों के साथ के साथ उदयगिरी परिक्रमा शुरू की थी। इसी परिक्रमा में साहित्य को भी स्थान दिया गया था और युगादि नवमी समस्या के रूप में दोहा, सवैया और कवित्त के रूप में तीन विषय दिए जाने लगे जिन पर रचनाएं लिखने और नरसिंह शिला में कवि सम्मेलन में पढऩे की परंपरा शुरू हुई।
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अक्षय नवमीं पर परिक्रमा का अक्षय फल
वर्षों से उदयगिरी परिक्रमा से जुड़े पं. सुरेश शर्मा शास्त्री कहते हैं कि परिक्रमा अक्षय नवमी पर शुरू की गई थी, जिसे आंवला नवमी भी कहते हैं। मान्यता है कि इस दिन लिया ईश्वर का नाम, पूजा, धर्म कर्म या दान हजार के बराबर होता है। इसलिए परिक्रमा के लिए इस दिन को चुना गया ताकि परिक्रमा का भी अक्षय फल मिल सके।