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भोपाल। बंगाल की खाड़ी के तट पर स्थित भारत के खूबसूरत राज्यों में से एक राज्य है तमिलनाडु। एक से बढ़कर एक नायाब ऐतिहासिक धरोहर आपको यहां आकर अपने से बांध लेती है। कई तरह के भव्य मंदिर इस राज्य को एक धार्मिक पर्यटन स्थल भी बनाती है। लिहाजा यह न केवल खूबसूरती को लेकिर टूरिस्ट की पसंद बल्कि धार्मिक टूरिज्म के लिए भी महत्वपूर्ण राज्य माना जाता है।
मंदिरों की खूबसूरत शृंखला यहां देखी जा सकती है। इन्हीं मंदिरों में से एक मंदिर है रंगनाथ स्वामी मंदिर। इसे दुनिया के सबसे बड़े मंदिर अंगकोर वाट के बाद दूसरा सबसे बड़ा मंदिर माना जाता है। अंगकोर वाट भी सृष्टि के पालनहार नारायण भगवान विष्णु का मंदिर है। वहीं दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मंदिर माना जाने वाला तमिनाडु का यह रंगनाथ स्वामी मंदिर भी नारायण भगवान विष्णु का ही मंदिर है। अंतर बस इतना है कि यहां भगवान विष्णु को विष्णु नहीं बल्कि रंगनाथ भगवान के रूप में पूजा जाता है। दरअसल भगवान रंगनाथ को विष्णु का ही अवतार माना जाता है। यह मंदिर वैष्णव का एक प्रमुख तीर्थस्थल माना जाता है। तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली के श्रीरंगम में कावेरी नदी के तट पर स्थित इस मंदिर में एक 1000 साल पुरानी ममी भी संरक्षित है।
मंदिर की भव्यता और विष्णु के रंगनाथ रूप के दर्शन के लिए भारत से ही नहीं, बल्कि दुनिया भर से लाखों टूरिस्ट यहां पहुंचते हैं। यह मंदिर जितना भव्य और खूबसूरत माना जाता है, उतना ही भव्य और रोचक इसका इतिहास भी है। यहां आपको बता दें कि 3 नवंबर, 2017 को इस मंदिर को बड़े पैमाने पर पुनर्निर्माण के बाद सांस्कृतिक विरासत संरक्षण के लिए 'यूनेस्को एशिया प्रशांत पुरस्कार मेरिट, 2017' भी मिल चुका है। इस लेख में पत्रिका.कॉम आपको बता रहा है आखिर किसने और कैसे इस मंदिर का निर्माण करवाया और आप किस तरह यहां पहुंच सकते हैं...
भगवान राम ने विभिषण को सौंप दिया था यह स्थान
माना जाता है कि इस मंदिर में भगवान राम ने लंबे समय तक देवताओं की आराधना की थी। त्रेतायुग में रावण को पराजित करने के बाद भगवान राम जब लंका से वापस लौट रहे थे, तब यह स्थान उन्होने विभिषण को सौंप दिया था। मान्यता यह भी है कि यहां पर भगवान राम विभिषण के सामने अपने वास्तविक स्वरूप विष्णु के रूप में प्रकट हुए थे। तभी उन्होंने यहां रंगनाथ के रूप में निवास करने की इच्छा प्रकट की थी। माना जाता है कि उस समय से ही यहां भगवान विष्णु श्री रंगनाथ स्वामी के रूप में यहां वास करते हैं।
अपनी सबसे प्रिय मुद्रा में यहां विराजे हैं विष्णु
इस मंदिर में भगवान विष्णु की अद्भुत प्रतिमा है। पालनहार विष्णु यहां अपनी सर्वप्रिय मुद्रा यानि शयन की मुद्रा में विराजे हैं। यह मंदिर भगवान विष्णु के 108 मुख्य मंदिरों में से एक है। यह इकलौता मंदिर है जिसकी प्रशंसा तमिल भक्ति आंदोलन के सभी संतों के गीतों में मिलती है। यहां पर हर दिन 200 श्रद्धालुओं को भोजन कराने का रिवाज है। आनंदम योजना के तहत यहां भोजन परोसा जाता है। इतिहास बताता है कि फ्रांसीसी सैनिकों की ओर से कर्नाटक युद्ध के दौरान मुख्य देवता की मूर्ति की आंख से हीरा चोरी हो गया था। 189.62 कैरेट (37.924 ग्रा) का ऑरलोव हीरा मास्को क्रेमलिन के डायमंड फंड में आज भी संरक्षित है।
एकमात्र मंदिर जहां मृत शरीर की होती है पूजा
वैष्णव संस्कृति के दार्शनिक गुरु रामानुजाचार्य से भी इस मंदिर का एक गहरा नाता है। इतिहास बताता है कि श्री रामानुजाचार्य अपनी वृद्धावस्था में यहां आ गए थे। वे करीब 120 वर्ष की आयु तक श्रीरंगम में रहे थे। कुछ समय बाद उन्होंने भगवान श्री रंगनाथ से देहत्याग की अनुमति ली। इसके बाद अपने शिष्यों के सामने देहावसान की घोषणा कर दी। माना जाता है कि भगवान रंगनाथ स्वामी की आज्ञा के अनुसार ही उनके मूल शरीर को मंदिर में दक्षिण पश्चिम दिशा के एक कोने में रखा गया है। यह मंदिर दुनिया में एकमात्र ऐसा मंदिर है, जहां एक वास्तविक मृत शरीर को हिंदू मंदिर के अंदर कई वर्षों से रखकर पूजा जाता है। मंदिर में रामानुजाचार्य के 1000 वर्ष पूर्व के मूल शरीर को संभाल कर रखा गया है। लेकिन उनकी ममी निद्रा भंग रूप में नहीं बल्कि सामान्य बैठने की स्थिति यानी उपदेश मुद्रा में प्रतीत होती है। मंदिर में उनकी मूर्ति के पीछे उनकी ममी को रखा गया है। इस ममी पर केवल चंदन और केसर का लेप लगाया जाता है। इसके अलावा किसी अन्य रासायनिक पदार्थ का उपयोग इस ममी को संरक्षित करने के लिए नहीं किया जाता है। पिछले 878 वर्षों से केवल कपूर, चंदन और केसर के मिश्रण को दो साल में एक बार रामानुजाचार्य की ममी पर लगाया जाता है। इस लेप के कारण शरीर केसरिया रंग में परिवर्तित हो चुका है।
किसने किया निर्माण नहीं मिलता स्पष्ट तथ्य
इस मंदिर का निर्माण किसने कराया इस बारे में कोई स्पष्ट तथ्य नहीं मिलता। एक कथा के मुताबिक चोल वंश के एक राजा को यहां घने जंगल में एक तोते का पीछा करते हुए भगवान विष्णु की मूर्ति मिली थी। तब उसी राजा ने इसका निर्माण कराया था। वहीं दूसरी ओर मंदिर में मौजूद शिलालेखों में चोल, पांड्य, होयसल और विजयनगर राजवंशों के समय का प्रभाव दिखाई देता है। इसलिए माना जाता है कि दक्षिण भारत में शासन करने वाले अधिकांश राजवंशों ने समय-समय पर इस मंदिर का निर्माण और विस्तार कराया होगा।
माना जाता है टीपू सुल्तान का भी योगदान
मैसूर से नजदीक होने के कारण यह भी माना गया है कि शासक टीपू सुल्तान का भी इस मंदिर निर्माण में योगदान हो सकता है। कहते हैं कि टीपू सुल्तान यहां के पुजारियों में गहरी आस्था रखता था। इतनी ही नहीं अंग्रेजों के साथ हुए एक युद्ध में मिली जीत के लिए भी उसने यहां के पंडितों को धन्यवाद दिया था। उसका मानना था कि उनकी सलाह के कारण उसे विजय मिली थी। इसलिए सुल्तान ने उन्हें आदर-सम्मान के साथ आर्थिक सहयोग भी दिया था।
इस मान्यता के अनुसार ऐसे किया गया मंदिर का निर्माण
वहीं यह भी माना जाता है कि इस मंदिर के गर्भगृह को 817 ई. में एक नर्तकी हंबी ने बनवाया था। सन् 894 ई में गंग वंश के शासन के दौरान राजा थिरुमलायरा जी ने इसके निर्माण में सहयोग दिया। सन् 1117 ई. में जब श्री रामानुजाचार्य यहां आए, तो होयसला साम्राज्य में बिट्टदेव नाम के एक जैन शासक थे। उन्हें एक बहस में श्री रामानुजाचार्य ने पराजित किया था। बिटिरैया ने श्री वैष्णववाद स्वीकार किया और उन्हें विष्णुवर्धन नाम से सम्मानित किया गया। वह प्रभु के बहुत बड़े भक्तथे। राजा विष्णुवर्धन ने श्री रामानुजाचार्य को धन और आठ गांवों की भूमि दान की। रामानुजाचार्य ने प्रभु की सेवा को संचालित करने के लिए कुछ पदाधिकारियों को प्रभु के रूप में नामित किया। 1554 ई. में थिनना नामक एक हेब्बर विजयनगर गया और विजयनगर के दरबार में एक अधिकारी बन गया। वह विजयनगर से लौटा और शहर के लिए बाहरी किला और मंदिर के लिए बड़ी दीवार को बनवाया। सन् 1610 से 1699 तक श्रीरंगपटना मैसूर राज्य की राजधानी थी। उस समय वहां के राजा कृष्णराज वाद्यार ने हैदर अली को अपना सेनापति नियुक्त किया। हैदर अली भी भगवान रंगनाथ के भक्तथे। उन्होंने भी मंदिर के जीर्णोद्धार में अपना योगदान दिया। उनके बाद टीपू सुल्तान ने भी इस मंदिर की देख-रेख की और सहयोग दिया।
यह भी है मान्यता
एक मान्यता यह भी है कि गोदावरी तट पर सदियों पहले गौतम ऋषि का आश्रम हुआ करता था। उन्होंने यहां पर गोदावरी नदी को देव लोक से बुलाया था, जिस कारण चहुंओर उनकी जय-जय कार होने लगी थी। उनकी बढ़ती प्रसिद्धी से अन्य कई ऋषि उनसे जलने लगे थे। वह उन्हें सभी की नजरों में गिराना चाहते थे। इसलिए उन्होंने एक साजिश के चलते ऋषि गौतम पर गौ हत्या का आरोप लगाकर उन्हें आश्रम से निकालवा दिया था। गौतम ऋषि इस घटना से बहुत आहत थे, इसलिए उन्होंने श्रीरंगम आकर भगवान विष्णु की तपस्या शुरूकर दी। कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर रंगनाथ स्वामी के रूप में उन्हें यहीं पर अपने दर्शन दिए। इस लिहाज से इस जगह को धार्मिक माना गया और फिर धीरे-धीरे यहां रंगनाथ स्वामी मंदिर का निर्माण कराया गया। जो आज एक विशाल परिसर में फैला हुआ है।
- मान्यता के अनुसार चोल वंश के एक राजा को यहां मौजूद भगवान विष्णु की मूर्ति घने जंगल में एक तोते का पीछा करते हुए मिली थी, और उन्होंने ही इसका निर्माण कराया था।
यह भी है रोचक कथा
मान्यता है कि पापों से खुद को छुटकारा दिलाने के लिए कई लोग कावेरी नदी में पवित्र स्नान करते हैं। यहां तक कि गंगा नदी भी स्वयं यहां आकर लोगों के उन पापों से भी छुटकारा पाती थी जिन्हें उसने अवशोषित किया था। कावेरी इन सब पापों से घिर गई। उनके पास एकमात्र शरण भगवान विष्णु की ही थी। कावेरी ने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए श्रीरंगपटना में तपस्या की। भगवान उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्हें तीन वचन दिए। पहला वचन था कि कावेरी नदी की पवित्रता गंगा नदी की तुलना में अधिक होगी। दूसरा वचन था श्रीरंगपट्टन एक तीर्थस्थल के यप में पहचाना जाएगा। तीसरा वचन था भगवान विष्णु भक्तों को आशीर्वाद देने और उनकी इच्छाओं को पूरा करने के लिए भगवान रंगनाथ के रूप में यहां प्रकट होंगे। इन वरदानों से सम्मानित होने के बाद कावेरी ने भगवान की पूजा की। तब प्रभु ने स्वयं को एक बहुत ही सुंदर देवता के रूप में प्रकट किया। जिसके मुताबिक भगवान नाग आदित्य पर विश्राम कर रहे थे। यह सुनकर लक्ष्मी जी, जो भगवान विष्णु की पत्नी हैं, कावेरी के साथ भगवान के दर्शन के लिए आ गईं। फिर माता लक्ष्मी पवित्र नदी में स्नान करती हैं और भगवान की पूजा करने के बाद अपने आप को प्रभु के दक्षिण पूर्व की ओर प्रकट कर लेती हंै।
द्रविडिय़न शैली में बना है मंदिर
वैसे तो मंदिर ग्रेनाइट पत्थर से बनाया गया है लेकिन, मंदिर में मुख्य देवता की मूर्ति स्टुको से बनी हुई है। इसके अलावा यहां अन्य देवी-देवताओं को समर्पित देवालय भी दिखते हैं। वास्तु कला के लिहाज से यहां द्रविडिय़न शैली की बहुलता भी देखने को मिलती है। मंदिर का जिक्र संगम युग( 1000 ई. से 250 ई.) के तमिल साहित्य और शिलप्पादिकारम (तमिल साहित्य के पांच श्रेष्ठ महाकाव्यों में से एक) में भी मिलता है। यह मंदिर विशाल परिसर वाले मंदिरों में से एक है। मंदिर का प्रवेश द्वार अत्यंत भव्य है। इसमें गोपुरम यानी ऊपर के हिस्से में बहुत अच्छी कारीगरी की गई है। गर्भगृह तक पहुंचने के लिए स्टील के पाइप से बने संकरे रास्ते से जाना होता है। गर्भगृह में भगवान रंगनाथ जी को सात मुख वाले शेषनाग के द्वारा बनी शैय्या पर लेटा हुआ दिखाया गया है। उनके पास लक्ष्मी जी विराजी हैं। इनके साथ परिसर में भगवान गरुण, भूदेवी, ब्रह्मा, नरसिंह, श्रीदेवी, गोपालकृष्ण, हनुमानजी के मंदिर समेत और भी छोटे-छोटे मंदिर भी हैं। यहां पर गरुण देव की एक स्वर्ण परत वाली प्रतिमा भी टूरिस्ट के लिए आकर्षण का केंद्र रहती है। द्रविडिय़न शैली में निर्मित रंगनाथस्वामी मंदिर होयसाला और विजयनगर वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। मंदिर की किले जैसी दीवारें और जटिल नक्काशियों वाला गोरूपम बेहद आकर्षक हैं। इसमें भगवान विष्णु के 24 अवतारों की नक्काशी के साथ 4 स्तंभ हैं, जिन्हें चतुरविमष्टी कहा जाता है। माना जाता है कि होयसाला वंश के शासक नक्काशी की कला के बड़े पारखी थे। अंदर की दीवारों पर अत्यंत भव्य मूर्तिकला है, जिसमें हिन्दू पौराणिक कथाओं को दर्शाया गया है।
धरती का स्वर्ग
तिरुचिरापल्ली के श्रीरंगम में स्थित होने के कारण यह मंदिर श्रीरंगम मंदिर के नाम से भी दुनियाभर में जाना जाता है। आपको बता दें कि यह मंदिर गोदावरी और कावेरी नदी के बीचोंबीच बना हुआ है। हर मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को यहां रंग जयंती उत्सव का आयोजन किया जाता है। आठ दिवसीय यह उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। मान्यता है कि कृष्ण दशमी के दिन कावेरी नदी में स्नान करने से आठ तीर्थ में नहाने के बराबर पुण्य मिलता है। इस मंदिर की खूबसूरती और भव्यता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस मंदिर को धरती का वैकुंठ या स्वर्ग भी कहा जाता है।
यहां इस समय कर सकते हैं दर्शन
रंगनाथ स्वामी मंदिर में दर्शन का समय प्रात: 8 बजे से दोपहर 1 बजे तक है। इसके बाद शाम 4 बजे से रात 8 बजे तक दर्शन किए जा सकते हैं। जानकारी के मुताबिक इस मंदिर में दर्शन का समय हर बार बदलता रहता है। ऐसे मे जब भी आप यहां जाएं तो ऑनलाइन दर्शन का समय देखकर ही जाएं।
ऐसे पहुंचे वहां
- श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर आप कैसे जा सकते हंै, तो आपको बता दें कि आप यहां हवाई, रेल और सड़क तीनों मार्गों से जा सकते हैं। रेल से सफर करने की बात की जाए तो श्री रंगनाथ स्वामी मंदिर के काफी नजदीक करीब 6 किलोमीटर की दूरी पर ही त्रिचि रेलवे स्टेशन है।
- अगर आप हवाई सफर करना चाहते हैं, तो इस मंदिर के नजदीक मुख्य एयरपोर्ट तिरुचिरापल्ली अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है, जो मंदिर से करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
- वहीं यदि आप सड़क मार्ग से जाना चाहते हैं तो आपको बता दें कि कोई भी व्यक्तिसड़क मार्ग के माध्यम से यहां आसानी से पहुंच सकता है। तमिलनाडु राज्य में स्थित होने की वजह से यहां के लिए तमिलनाडु के मुख्य शहरों से डायरेक्ट बस की सेवा भी आपको मिल आसानी से मिलती है। वहीं यहां का सड़क मार्ग बेहद सुगम है, जो आपकी यात्रा को आनंदमयी बना देता है।
कहां ठहरें
तमिलनाडु का तिरुचिरापल्ली मुंबई जैसे महंगा नहीं है। यहां आप अपनी सुविधा अनुसार 2000 रुपए से 4000 रुपए तक के बजट का कोई होटल प्रतिदिन के हिसाब से ले सकते हैं।
क्या खाएं
वैसे तो जब तक आप होटल में रहेंगे, तब तक आपके लिए वहां खाने का सारा इंतजाम होगा। फिर भी आप साउथ इंडियन खाने के विभिन्न व्यंजनों का स्वाद यहां ले सकते हैं। बताते चलें कि केले के पत्ते को थाली के रूप में देखना ही आपके लिए अद्भुत हो सकता है।
आसपास घूमने लायक अन्य स्थल
भारतीय पैनोरमा : यह यहां से 1.4 किमी दूर स्थित है।
जंबुकेश्वर मंदिर : यहां से 1.6 किमी की दूरी पर है।
श्री रंगम रंग नाथर मंदिर : यहां से 1.7 किमी की दूरी पर है।
रॉकफोर्ट यूसीची पिल्लार मंदिर : यहां से 4.5 किमी की दूरी पर है।
श्रीरंगम मेलूर अय्यर मंदिर : यहां से 1.7 किमी दूर 'मेलूर' में यह मंदिर स्थित है।
Updated on:
24 Dec 2022 04:08 pm
Published on:
24 Dec 2022 04:07 pm
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