29 दिसंबर 2025,

सोमवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

खगोल में दूरदर्शी से भारत का पहला परिचय

प्रो. आर सी कपूर (से.नि.) , भारतीय ताराभौतिकी संस्थान, बेंगलूरु

4 min read
Google source verification
ramesh kapoor

खगोल में दूरदर्शी से भारत का पहला परिचय

प्रो. आर सी कपूर (से.नि.) ,
भारतीय ताराभौतिकी संस्थान, बेंगलूरु

ब्रह्मांड का स्वरूप क्या है? सदियों से सार्वभौमिक नियमों की जानकारी के अभाव में मनुष्य ब्रह्माण्ड का खाका अलौकिक परिकल्पनाओं के रंग में रंगता रहा।

हिन्दू पुराणों के अनुसार शेषनाग पर वाराह, वाराह पर हाथी एवं इन पर टिके हैं तीन लोक - पाताल, पृथ्वी व आकाश। प्राचीन भारतीय खगोल ग्रंथों के अनुसार भी पृथ्वी विश्व के केंद्र में है और सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य ग्रह, सितारे इसका चक्कर काटते हैं।

एरिस्टोटल (38 4-322 ई पू) के अनुसार ब्रह्माण्ड अपरिवर्तनशील और गोलाकार था, पृथ्वी स्थिर एवं इसके केंद्र में थी। ईसा की दूसरी शताब्दी में प्रसिद्व खगोलविद टॉलेमी (100-170 ई) ने ब्रह्माण्ड सम्बन्धी तत्कालीन विचारों को परिष्कृत कर अपनी पुस्तक अल्माजेस्त में प्रस्तुत किया।

उनके विचार में भी पृथ्वी स्थिर थी और सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह तथा सभी सितारे विभिन्न गोलों में जड़े इसके चारों और घूमते थे। इस तस्वीर में एक क्रांतिकारी बदलाव तब आया जब कोपरनिकस ने 1543 में प्रकाशित अपने ग्रन्थ में सूर्य को विश्व के केंद्र में रखा जिसकी परिक्रमा पृथ्वी सहित सभी ग्रह करते हैं।

परिस्थिति में अगला महत्त्वपूर्ण बदलाव तब आया जब 16 08 में नीदरलैण्ड्स में बसे हान्स लिपर्शे ने दो लेंसों को मिला कर एक ऐसा यंत्र तैयार किया जिसके दरिये दूर की चीजों को साफ और परिवर्धित रूप में देखा जा सकता था।

यह एक अद्भूत रचना थी। अभी इसे दूरदर्शी नाम नहीं मिला था किन्तु शीघ्र ही गैलिलियो के हाथों यह विज्ञान के एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। वर्ष 16 09 में 2 अक्टूबर की रात पहली बार गैलिलियो ने अपने नए दूरदर्शी यन्त्र से आकाश को देखा।

शीघ्र ही वे जान गए कि धरती की तरह चन्द्रमा पर भी पहाड़ हैं, गर्त हैं, शुक्र की चन्द्रमा जैसी कलायें हैं। सूर्य में कलंक तथा इनके स्थान बदलते रहने से सूर्य के अक्षभ्रमण का सुझाव मिला तो वृहस्पति ग्रह के आसपास घूमते तारों के सदृश चार बिंदु एक छोटे सौरमंडल का आभास दे गए।

इस सब का ज्ञान सभ्यता के इतिहास में इंसान को पहली बार हुआ। गैलिलियो की खोजों से कोपरनिकस को मजबूत समर्थन मिला। इन खोजों ने चर्च की तत्कालीन धारणा खंडित कर दी कि सूर्य निष्कलंक व पूर्ण है और ब्रह्माण्ड अपरिवर्तनशील है।

आधुनिक खगोल के इतिहास में वर्ष 16 18 एक तरह से अनूठा कहा जा सकता है। इस वर्ष तीन महा धूमकेतुओं का उदय हुआ, पहला अगस्त में उभरा और बाकी दो नवम्बर के महीने में।

एक के बाद एक तीन पुच्छल तारों के आगमन ने यूरोप में जैसे सनसनी फैला दी। यह वह समय था जब गैलिलियो ने अपने अवलोकनों के जरिये सौर मंडल को इसके सही रूप में सामने रख दिया था तो दूसरी ओर योहानेस केप्लेर ग्रहों की गति समझाने में लगे थे।

विभिन्न स्थानों से इनके अवलोकन लिए गए तो वैज्ञानिक समुदाय में इनकी प्रकृति और उद्गम को लेकर एक लम्बी बहस चल गयी जिससे गैलिलियो और केप्लेर तक अछूते न रह सके।

इनके सामाजिक प्रभाव भी हुए जो मुख्यत: धूमकेतुओं से जुड़े अंधविश्वास को लेकर थे। यूरोप से बहुत दूर, नवंबर 16 18 में प्रकट हुए धूमकेतु भारत में भी देखे गए।

यह एक अद्भूत मौका था जब दो अलग विधाओं में पारंगत खगोल शास्त्रियों ने इनका नजारा ही नहीं किया बल्कि इनके आकार और गति के मापन भी लिए। आप को यह जान कर आश्चर्य होगा कि बादशाह जहांगीर ने अपने संस्मरणों में इन दोनों धूमकेतुओं का वर्णन किया है।

उस समय शाही लश्कर गुजरात में दोहद से रवाना होकर उज्जैन की ओर अग्रसर था। इस बीच रामगढ नामक स्थान पर उन्होंने डेरा डाला जहाँ से 10 नवंबर के तड़के पहला धूमकेतु देखा। रामगढ कहाँ है, क्या यह आज भी वजूद में है?

इस स्थान के विषय में कहीं भी जानकारी नहीं मिलती। अपने शोधकार्य में मैंने पाया कि यह संभवत: वही रामगढ है जो झाबुआ जिले की थांदला तहसील में है।

शाही खगोलविदों ने इस धूमकेतु की पुच्छ की लम्बाई चौबीस डिग्री बतायी। जहांगीर ने लिखा कि धूमकेतु पूर्व के आकाश में सूर्योदय से ठीक पहले धुंए के एक विशाल स्तम्भ के रूप में दिखाई दिया।

स्थिर तारों की पृष्ठभूमि में यह स्थान भी बदल रहा था। दूसरे धूमकेतु को उन्होंने इसके सोलह दिन बाद देखा जो एक अनूठी शक्ल लिए हुए था। इन्हीं दिनों इन धूमकेतुओं के अध्ययन गोवा से भी हुए. यहाँ अक्टूबर 16 18 से रोम से आए जेसुइट मिशनरियों का एक समूह ठहरा हुआ था।

इस समूह का गंतव्य था चीन जहां ये धर्म के प्रसार के उद्देश्य से जा रहे थे। वहां सम्राट को भेंट स्वरूप देने के लिए अनेकानेक पुस्तकों के साथ ये कई दूरदर्शी एवं खगोल में प्रयोग के लिए बहुत से यंत्र भी लाये थे।

इस समूह में शामिल एक खगोलशास्त्री फादर किरवित्जर ने सभी अवलोकनों को विस्तार से 24 पृष्ठ की एक पुस्तक में संजोया। इनके प्रथम अवलोकन भी 10 और 26 नवंबर के हैं जिनसे फा. किरवित्जर भी इन धूमकेतुओं के खोजकर्ता हो गए हैं।

वर्ष 16 20 में प्रकाशित यह पुस्तक पिछले 400 वर्ष से लुप्तप्राय रही। अपने शोध के दौरान मैंने पाया कि 2014 में इसकी एक प्रति ऑस्ट्रियन नेशनल लाइब्रेरी ने डिजिटल रूप में प्रकाशित की है।

लैटिन भाषा से इसका अनुवाद कर पता चला कि फा. किरवित्जर ने इन धूमकेतुओं के अवलोकनों के लिए एक ट्यूबो ऑप्टिको (दूरदर्शी) का भी प्रयोग किया था।

मध्ययुग में प्रस्फुटित हो रहे नव खगोल विज्ञान में भारत में यह पहला प्रयोग था। सत्रहवीं शताब्दी के भारत में खगोल विज्ञान में अध्ययन के लिए दूरदर्शी के प्रयोग के केवल तीन सन्दर्भ मिलते हैं, 1618 , 1651 और 1689 में।

जहांगीर को 1616 में ब्रिटिश राजदूत सर थॉमस रो से जो तोहफे मिले उनमें एक दूरदर्शी भी था। आसमान के नजारे के लिए कभी इसका प्रयोग किया हो ऐसा साक्ष्य नहीं है।

यह ध्यान योग्य है कि कोपरनिकस का प्रस्तावित नया विश्वरूप तथा गैलिलियो की सौरमंडल की खोजों से भारत बहुत समय तक अनभिज्ञ रहा। चर्च इन नयी खोजों से सहमत नहीं था इसलिए मिशनरियों का उद्देश्य पूर्वी देशों में धर्म के प्रचार तथा प्रसार में केंद्रित हो गया।

अपने यहाँ, प्राचीन खगोल शास्त्र में नयी वैज्ञानिक विचारधारा पुरानी को अपदस्थ तो कर सकती थी किन्तु उसे अवलम्ब नहीं दे सकती थी। भारत में नवजागरण का अंकुरण 19 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ जब भारतीय भाषाओं में रचित ग्रंथों में यूरोपीय ज्ञान विज्ञान को स्थान मिला।

आज भारत विज्ञान और अंतरिक्ष के क्षेत्र में आशातीत प्रगति हासिल कर चुका है। विडम्बना की बात तो यह है कि जहां नयी से नयी टेक्नोलॉजी को अपनाने में हम नहीं हिचकते, वैज्ञानिक सोच के प्रति उतने ही प्रतिकूल होते जाते हैं।

देश में 400 साल पूरे
नवंबर 2018 में भारत में दूरदर्शी के प्रथम प्रयोग के 400 वर्ष पूरे हो रहे हैं. भारत में गोवा में इस प्रथम प्रयोग को 11-18 नवंबर के दौरान एक उत्सव के रूप में मनाया जा रहा है।

यह एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया, गोवा साइंस सेण्टर तथा एसोसिएशन ऑफ फ्रेंड्स ऑफ एस्ट्रोनॉमी आदि का संयुक्त उद्यम है।

इसमें प्रमुख हैं इस विषय में सर्व जन के लिए गोवा साइंस सेन्टर में व्याख्यान एवं गोवा में विभिन्न स्थानों से दूरदर्शी के जरिये आकाशदर्शन आदि।