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इस गांव में शाम होते ही बजता है सायरन, लोग बंद कर लेते है मोबाइल और टीवी

गांव के मंदिर से हर शाम 7 बजे एक सायरन बजता है। इसके बाद लोगों अपने मोबाइल फोन, TV और अन्य गैजेट्स बंद कर दें। डिजिटल दुनिया के गलत प्रभाव से बचने के लिए मोबाइल और टीवी बंद करने का प्रस्ताव गांव के सरपंच विजय मोहिते ने रखा।

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mobile and tv

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आज डिजिटल का जमाना है। इस दौर सभी लोग मोबाइल फोन और इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। इस डिजिटल से लोगों की जिंदगी में काफी बदलाव आया है। ऑफिस से लेकर बैंक तक का काम घर बैठे चंद पलों में ही निपटा लेते हैं। वर्तमान में सबसे ज्यादा लोग मोबाइल और टीवी पर समय बिताते हैं। लेकिन डिजिटल दुनिया में एक ऐसा गांव है, जहां शाम होते ही लोग अपना मोबाइल और टेलीविजन बंद कर देते हैं। इस गांव में हर शाम मंदिर में एक सायरन बसता है। जिसके बाद गांव के सभी लोग अपने मोबाइल, टीवी और सभी गैजेट्स बंद कर लेते हैं। सायरन बजने के बाद स्कूली बच्चे अपनी किताबों से पढ़ाई करते हैं तो वहीं दूसरे लोग बातें करते हैं। दूसरा सायरन बजने तक यह प्रक्रिया जारी रहती है। आइए जानते हैं इस गांव के बारे में।


हम बात कर रहे है। महाराष्ट्र में सांगली के मोहित्यांचे वडगांव नाम के गांव की। यहां डिजिटल दुनिया के गलत प्रभाव से बचने के लिए एक अनोखा तरीका अपनाया है। इस गांव के लोग डेढ़ घंटे के लिए अपने मोबाइल, टीवी और दूसरे गैजेट्स को बंद कर लेते हैं। मोहित्यांचे वडगांव नाम के इस गांव में 3,105 लोग रहते हैं। यह रूटीन रविवार को भी फॉलो किया जाता है। इसकी निगरानी के लिए एक वार्ड-वार कमेटी बनाई गई है।


गांव के सरपंच विजय मोहित ने मोबाइल और टीवी बंद करने का प्रस्ताव रखा। इस खास मुहिम से लोग लगातार जुड़ रहे है। स्थानीय मंदिर से रोजाना शाम 7 बजे एक सायरन बजता है। इसके बाद लोग अपने मोबाइल फोन, टेलीविजन सेट और दूसरे गैजेट्स को बंद कर देते है। इसके बाद लोग किताबें पढ़ते हैं, बच्चे अपनी पढ़ाई में लग जाते हैं। इस दौरान पेरेंट्स भी उनकी मदद करते हैं। लोग एक दूसरे के साथ आमने-सामने बैठ कर बातें करते हैं। रात 8.30 बजे दूसरा अलार्म बजने के बाद लोग फिर से अपने माबाइल और टीवी को ऑन कर लेते हैं।

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सरपंच मोहिते ने एक इंटरव्यू के दौरान बनाया कि कोरोना वायरस और लॉकडाउन में ऑनलाइन क्लास होने के चलते बच्चों के पास फोन आ गया। वहीं माता-पिता देर तक टीवी देखने लगे। दोबारा स्कूल शुरू होने पर टीचर्स को लगा कि बच्चे आलसी हो गए हैं। इसके बाद डिजिटल डिटॉक्स का विचार आया।

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