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1751 से प्रारम्भ हुई कवर्धा रियासत की दशहरा परंपरा, आज भी राजपरिवार निभा रहा है विरासत, जानें इतिहास व महत्व

Dussehra 2025: कवर्धा में शाही दशहरा मनाने की ढ़ाई दशक से भी अधिक पुरानी परम्परा है, जिसका निर्वहन आज भी किया जा रहा है। कवर्धा रियासत के पूर्व राजपरिवार के सदस्य अपनी पीढ़ी की परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं।

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कवर्धा में शाही दशहरा (फोटो सोर्स- पत्रिका)

कवर्धा में शाही दशहरा (फोटो सोर्स- पत्रिका)

Dussehra 2025: कवर्धा में शाही दशहरा मनाने की ढ़ाई दशक से भी अधिक पुरानी परम्परा है, जिसका निर्वहन आज भी किया जा रहा है। कवर्धा रियासत के पूर्व राजपरिवार के सदस्य अपनी पीढ़ी की परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं।

कवर्धा के दशहरे के इतिहास पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि यहां रियासत स्थापना काल अर्थात सन् 1751 से 1760 के मध्य दशहरे का आयोजन प्रारम्भ हो गया था। रियासत के संस्थापक राजा स्व. महाबली सिंह वीरता और शौर्य की साक्षात् मूर्ति थे। विजयादशमी के दिन शस्त्र पूजन की विशेष परम्परा है। इतिहासकार आदित्य श्रीवास्तव बताते हैं कि इतिहास की बातें पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती हैं और वे किस्से कहानियों के रूप में आते हैं।

तब रामलीला का मंचन होता था और श्रीराम, लक्ष्मण और रावण बने कलाकार प्रत्यक्ष रूप में दशहरा उत्सव में भाग लेते थे। कवर्धा के अत्यंत लोकप्रिय राजा स्व.धर्मराज सिंह के कार्यकाल सन 1920 से दशहरा उत्सव समिति बनाने की परम्परा शुरू की गई। उक्त समिति में आसपास और नगर के प्रतिष्ठित नागरिकों को शामिल को किया जाता रहा है। यह परम्परा वर्तमान भी प्रचलित है।

Dussehra 2025: कवर्धा स्टेट बना तब से चल रही परंपरा

कवर्धा रियासत के राजा योगेश्वर राज सिंह ने बताया कि कवर्धा में शाही दशहरा मनाने की सालों पुरानी परम्परा है। जब से कवर्धा स्टेट बना तब से चल रहा है जो अब भी कायम है। उन्होंने कहा कि उनकी सोच व प्रयास है कि यह आगे भी चलता रहे। लोगों की सहभागिता रहती है। सबका प्यार मिलता है। आगे चलकर यह और बड़े स्तर पर आयोजित हो ये कोशिश रहेगी।

कवर्धा में विजयादशमी की विशेष प्रक्रिया

वर्तमान में जो प्रक्रिया है वह राजा महाबली सिंह के समय से चली आ रही है। विजयादशमी की सुबह रियासत प्रमुख राजा साहब और युवराज पाली पारा स्थित अपनी कुल देवी मां दंतेश्वरी के मन्दिर में दर्शन पूजन करने जाते हैं। बाद में खेड़ापति हनुमान जी, राधाकृष्ण मन्दिर में दर्शन करते हुए मां सतबहनिया देवी के दर्शन के पश्चात महल पहुंचते हैं। राजमहल में पुन: पूजन और शस्त्र पूजन करते हैं। श्रृंगारयुक्त होकर राजा और युवराज की मंगल आरती की जाती है।

दशहरा के दिन राजा के दर्शन को शुभ माना जाता है। इसलिए शाम को राजा योगेश्वर राज सिंह व युवराज मैकलेश्वरराज सिंह शाही रथ में सवार होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं। जहां रावण दहन के बाद लोगों की भारी भीड़ राजा के रथ के साथ चलती है। नगर भ्रमण के कुछ घंटों के अन्तराल के बाद रात्रि में राजमहल में राजा का दरबार लगता है जिसमें राजा को जोहारने व नजराना भेंट करने नगर के लोग उपस्थित रहते हैं। राजा की ओर से बीड़ा पान व शमी पत्ता(सोनपत्ती) दी जाती है। राजा से भेंट की परम्परा राजा योगेश्वरराज सिंह आज भी कायम रखे हुए हैं।

शाही दशहरा विशेष दर्शनीय

छत्तीसगढ़ के बस्तर और कवर्धा का शाही दशहरा विशेष दर्शनीय होता है। पुराने समय से यह मान्यता है कि दशहरे के दिन नीलकंठ और राजा का दर्शन किया जाता है और लंकाविजय के उपलक्ष में सोनपत्ती एक दूसरे को दिया जाता है। कवर्धा के दशहरे की एक और खास बात है कि बैगा जनजाति के लोग 100-150 किमी दूर वनांचल से पारम्परिक वेशभूषा मे कवर्धा पहुंचते हैं। उनके लिए दशहरे का एक ही महत्व है कि उन्हें अपने राजा का दर्शन मिल जाए। कवर्धा की शाही दशहरा को देखने बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं।

रावण ने एक स्त्री का अपमान किया था

कवर्धा राजपरिवार के पुरोहित अनिश शर्मा बताते है कि बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक यह पर्व कई संदेश देता है। रावण ने एक स्त्री का अपमान किया था, जिसे लेकर यह संदेश देने का प्रयास किया गया कि बुरी नियत मातृ शक्ति पर डालने का परिणाम बहुत बुरा होता है। चाहे सामने वाला व्यक्ति कितना भी बड़ा हो, ज्ञानी हो, धनवान हो अंत जरूर होता है। बुरे कर्म का नतीजा बुरा ही होता है। दशहरे के दिन राजा को देव तुल्य माना जाता है इसलिए इस दिन उनका दर्शन शुभ रहता है।