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Bombay High Court Orders: बॉम्बे हाईकोर्ट में चलेगी योगी आदित्य नाथ पर बनी फ़िल्म, जानिए क्यों

Bombay High Court Orders AjayTheUntoldStory: बॉम्बे हाईकोर्ट ने सीबीएफसी द्वारा योगी आदित्यनाथ पर बनी फिल्म “अजय: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ ए योगी” को प्रमाणित करने से इनकार पर कड़ा रुख अपनाया है। अदालत ने कहा कि वह पहले फिल्म देखेगी, फिर आदेश देगी। निर्माताओं ने सेंसर बोर्ड पर अनावश्यक देरी और मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाया है।

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लखनऊ

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Ritesh Singh

Aug 22, 2025

बॉम्बे हाईकोर्ट के जज सीबीएफसी की मंजूरी मांगने वाली याचिका पर फैसला सुनाने से पहले 'योगी पर बनी फिल्म' देखेंगे     फोटो सोर्स : Social Media, Whatsapp

बॉम्बे हाईकोर्ट के जज सीबीएफसी की मंजूरी मांगने वाली याचिका पर फैसला सुनाने से पहले 'योगी पर बनी फिल्म' देखेंगे     फोटो सोर्स : Social Media, Whatsapp

Bombay High Court Order: उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर आधारित फिल्म “अजय: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ ए योगी” को लेकर बॉम्बे हाईकोर्ट में बड़ा मोड़ आ गया है। अदालत ने गुरुवार को कहा कि वह फिल्म के निर्माताओं की याचिका पर आदेश देने से पहले स्वयं यह फिल्म देखेगी। याचिका में निर्माताओं ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) पर फिल्म को प्रमाणित करने में देरी और अनावश्यक आपत्तियां उठाने का आरोप लगाया है।

अदालत का निर्देश: आपत्तिजनक दृश्यों को चिह्नित करें

न्यायमूर्ति रेवती मोहिते-डेरे और न्यायमूर्ति नीला के गोखले की खंडपीठ ने सुनवाई के दौरान निर्देश दिया कि निर्माता फिल्म की वह प्रति अदालत में जमा करें, जिसमें उन दृश्यों को स्पष्ट रूप से चिह्नित किया जाए जिन पर सीबीएफसी ने आपत्ति जताई है। अदालत ने यह भी कहा कि फिल्म को देखने के बाद ही वह इस मामले पर अंतिम आदेश पारित करेगी।

फिल्म के निर्माता सम्राट सिनेमैटिक्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड ने पिछले महीने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। याचिकाकर्ता का कहना है कि यह फिल्म लेखक शांतनु गुप्ता की पुस्तक “द मॉन्क हू बिकेम चीफ मिनिस्टर” से प्रेरित है और इसका निर्माण पूरी तरह से तथ्यात्मक और रचनात्मक स्वतंत्रता के तहत किया गया है। निर्माताओं ने तर्क दिया कि पुस्तक को उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री कार्यालय से आधिकारिक समर्थन प्राप्त है, फिर भी सीबीएफसी फिल्म को मंजूरी देने से इनकार कर रहा है।

सीबीएफसी की कार्रवाई में देरी का आरोप

याचिका के अनुसार, निर्माताओं ने 5 जून को प्रमाणन के लिए आवेदन किया था। नियमों के मुताबिक, सीबीएफसी को सात दिनों में आवेदन की प्रारंभिक जांच करनी थी और पंद्रह दिनों के भीतर फिल्म को स्क्रीनिंग के लिए भेजना था। लेकिन लगभग एक महीने तक कोई कार्रवाई नहीं हुई।

इस बीच 1 अगस्त को हाईकोर्ट ने सीबीएफसी को आदेश दिया कि वह फिल्म देखकर तय करे कि इसे प्रमाणित किया जा सकता है या नहीं। इसके बाद बोर्ड ने 6 अगस्त को फिल्म को प्रमाणित करने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि फिल्म सिनेमैटोग्राफ एक्ट और सार्वजनिक प्रदर्शन के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करती है।

पुनरीक्षण समिति की अस्वीकृति

निर्माताओं को कोर्ट ने 7 अगस्त को निर्देश दिया कि वे सीबीएफसी की पुनरीक्षण समिति के समक्ष आवेदन दें। साथ ही, सीबीएफसी को आदेश दिया गया कि वह 11 अगस्त तक बताए कि किन संवादों या दृश्यों पर आपत्ति है और क्या निर्माता उन्हें हटाने या संशोधित करने को तैयार हैं।

सीबीएफसी ने फिल्म पर 29 आपत्तियां दर्ज कीं। हालांकि, निर्माताओं की ओर से 12 अगस्त तक कोई लिखित जवाब नहीं दिया जा सका। बाद में पुनरीक्षण समिति ने फिल्म देखी और 8 आपत्तियों को खारिज कर दिया, लेकिन शेष बिंदुओं पर आपत्ति बरकरार रखते हुए 17 अगस्त को फिल्म प्रमाणित करने से फिर इनकार कर दिया। इसके बाद, निर्माताओं ने हाईकोर्ट में अपनी याचिका संशोधित कर पुनरीक्षण समिति के निर्णय को भी चुनौती दी।

निर्माताओं का आरोप: मौलिक अधिकारों का उल्लंघन

निर्माताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता रवि कदम ने अदालत में दलील दी कि पुनरीक्षण समिति का फैसला मनमाना और असंवैधानिक है। उन्होंने कहा कि बोर्ड ने निर्माताओं को यह तक कह दिया कि वे फिल्म रिलीज से पहले योगी आदित्यनाथ से निजी एनओसी (नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट) प्राप्त करें। रवि कदम ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन बताया। उनका कहना था कि सीबीएफसी का काम केवल यह देखना है कि फिल्म सिनेमैटोग्राफ एक्ट के अनुरूप है या नहीं, न कि किसी व्यक्ति से अनुमति लेने के लिए बाध्य करना।

सीबीएफसी का पक्ष: प्रक्रिया का पालन हुआ

सीबीएफसी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अभय खांडेपारकर ने तर्क दिया कि पूरे मामले में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किया गया है। उनका कहना था कि निर्माताओं को पूरा अवसर दिया गया और वे चाहें तो सिनेमैटोग्राफ एक्ट के तहत अपील कर सकते हैं। उन्होंने अदालत को यह भी बताया कि प्रमाणन के दौरान बोर्ड ने केवल उन्हीं बिंदुओं पर आपत्ति जताई है जो सार्वजनिक प्रदर्शन के मानकों का उल्लंघन करते हैं।

कोर्ट की नाराजगी: सीबीएफसी की कार्यप्रणाली पर सवाल

सुनवाई के दौरान अदालत ने सीबीएफसी के कामकाज पर नाराजगी जताई। पीठ ने कहा कि फिल्म प्रमाणन एक समयबद्ध प्रक्रिया होनी चाहिए, लेकिन इस मामले में अनावश्यक देरी और बार-बार आपत्तियां उठाई गईं। अदालत ने कहा कि वह फिल्म को स्वयं देखेगी और यह तय करेगी कि आपत्तियां उचित हैं या नहीं।

क्या है अगला कदम

अदालत ने निर्माताओं को निर्देश दिया है कि वे फिल्म की पूरी प्रति अदालत में जमा करें और उन हिस्सों को स्पष्ट रूप से मार्क करें जिन पर आपत्ति है। इसके बाद न्यायाधीश फिल्म देखेंगे और फिर याचिका पर अंतिम आदेश देंगे। यह मामला न केवल फिल्म सेंसरशिप बल्कि रचनात्मक स्वतंत्रता बनाम संवैधानिक दायित्व की बहस को भी गहरा कर रहा है। सवाल यह है कि क्या किसी सार्वजनिक पद पर आसीन व्यक्ति पर आधारित फिल्म बनाने के लिए उसकी व्यक्तिगत मंजूरी आवश्यक है, या यह केवल सीबीएफसी के दिशा-निर्देशों के तहत तय होगा?